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"जो मन लागै रामचरन अस / तुलसीदास" के अवतरणों में अंतर
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देह गेह सुत बित कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस॥ | देह गेह सुत बित कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस॥ | ||
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सर्बभूताहित निर्ब्यलीक चित भगति प्रेम दृढ़ नेम एक रस। | सर्बभूताहित निर्ब्यलीक चित भगति प्रेम दृढ़ नेम एक रस। | ||
तुलसीदास यह होइ तबहि जब द्रवै ईस जेहि हतो सीस दस॥ | तुलसीदास यह होइ तबहि जब द्रवै ईस जेहि हतो सीस दस॥ | ||
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06:24, 26 अक्टूबर 2009 का अवतरण
जो मन लागै रामचरन अस।
देह गेह सुत बित कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस॥
द्वंद्वरहित गतमान ग्यान-रत बिषय-बिरत खटाइ नाना कस।
सुखनिधान सुजान कोसलपति ह्वै प्रसन्न कहु क्यों न होहिं बस॥
सर्बभूताहित निर्ब्यलीक चित भगति प्रेम दृढ़ नेम एक रस।
तुलसीदास यह होइ तबहि जब द्रवै ईस जेहि हतो सीस दस॥