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"स्नेह-रीति / सियाराम शरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर
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पा सकूँगा सुप्ति-सुख मैं भी विमल!"</poem> | पा सकूँगा सुप्ति-सुख मैं भी विमल!"</poem> |
09:57, 29 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
"दीप, तू जागृत रहा है रात भर
और मैं बेसुध पड़ा सोता रहा।
हाय, अत्याचार यह निज गात पर,
स्नेह - सह तू प्रज्ज्वलित होता रहा।"
"प्रज्वलित होता रहा, अच्छा हुआ,"
दीप बोला - "जागना मेरा सफल।
अब सुजागृति ने तुझे आ कर छुआ,
पा सकूँगा सुप्ति-सुख मैं भी विमल!"