भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बेच दूंगा मैं ख़ुद को खरीदेंगे आप / जगदीश तपिश" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश तपिश |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <Poem> बेच दूंगा मैं ख…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:25, 29 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
बेच दूंगा मैं ख़ुद को ख़रीदेंगे आप
सोच के आज आया हूँ बाज़ार मैं
दोस्तो मेरी कीमत जियादह नहीं
मैं भी बिक जाऊंगा आपके प्यार मैं
पहले हर बोल के मोल को तोलिए
बाद मैं जो मुनासिब लगे बोलिए
बोल से ही तो ज़ाहिर ये होता है के
कितनी तहजीब होगी ख़रीदार मैं
इतनी ज़ुर्रत कहाँ के लगा लूँ गले
ये भी हसरत नहीं के गले से लगूँ
जो मज़ा पा के सौ बार मिलता नहीं
वो मज़ा खो के पाया है एक बार में
बिक रही है ज़मीं बिक रहा आसमाँ
बिक रहा है चमन बिक रहा बागवाँ
ऐ तपिश जो अभी तक न बेचीं गई
वो क़लम साथ लाया हूँ बाज़ार मैं