भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"रह कर भी साथ तेरे तुझ से अलग रहे हैं / जगदीश तपिश" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश तपिश |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <Poem> रह कर भी साथ तेर…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
10:28, 29 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
रह कर भी साथ तेरे तुझ से अलग रहे हैं
कुछ वो समझ रहे थे कुछ हम समझ रहें हैं
एक वक़्त था गुलों से कतरा के हम भी गुज़रे
एक वक़्त है काँटों से हम ख़ुद उलझ रहे हैं
चाहत की धूप में जो कल सर के बल खडे थे
मखमल सी दूब पर भी अब पाँव जल रहे हैं
उठता हुआ ज़नाज़ा देखा वफ़ा का जिस दम
दुश्मन तो रोए लेकिन कुछ दोस्त हँस रहे हैं
मेरा नाम दीवारों पे लिख-लिख के मिटाते हैं
बच्चों की तरह बूढ़े ये चाल चल रहे हैं
तूने जिन्हें तराशा मंदिर में जा बसे हैं
पत्थर भी तपिश तेरी किस्मत पे हँस रहे हैं