"हादसे / अजित कुमार" के अवतरणों में अंतर
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अपने आप को सूरमा समझने के भरम ने | अपने आप को सूरमा समझने के भरम ने | ||
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जब एक बार फिर | जब एक बार फिर | ||
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मुझे आकाश से उतारकर धरती पर लिटाया | मुझे आकाश से उतारकर धरती पर लिटाया | ||
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सभी प्रियजन-स्वजन | सभी प्रियजन-स्वजन | ||
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इलाज की भाग-दौड़ में व्यस्त हो गए- | इलाज की भाग-दौड़ में व्यस्त हो गए- | ||
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वहाँ परदेस में लुंज-पुंज हो | वहाँ परदेस में लुंज-पुंज हो | ||
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मैं बेबस पड़ा था... | मैं बेबस पड़ा था... | ||
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अनायास मुझे याद आए | अनायास मुझे याद आए | ||
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मुग़लों के अंतिम सम्राट बहादुरशाह ज़फर | मुग़लों के अंतिम सम्राट बहादुरशाह ज़फर | ||
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इस ग़म में मुब्तिला कि- | इस ग़म में मुब्तिला कि- | ||
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‘दो गज़ ज़मीं भी न मिली कूए–यार में’— | ‘दो गज़ ज़मीं भी न मिली कूए–यार में’— | ||
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मुझे भी आत्मदया की गुंजलक में समेटते... | मुझे भी आत्मदया की गुंजलक में समेटते... | ||
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लगभग तभी मुझे मिले आप, | लगभग तभी मुझे मिले आप, | ||
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जफ़र साहब– एक चमत्कार की तरह | जफ़र साहब– एक चमत्कार की तरह | ||
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जो केवल इतना भर न था | जो केवल इतना भर न था | ||
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कि वे थे ‘ज़फ़र’ | कि वे थे ‘ज़फ़र’ | ||
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और आप भी वही , गोकि दिल्लीवाले नही... | और आप भी वही , गोकि दिल्लीवाले नही... | ||
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घुल मिलकर एक हुईं वतन की, | घुल मिलकर एक हुईं वतन की, | ||
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लखनऊ की, | लखनऊ की, | ||
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हमारी-आपकी भूली-बिसरी तमाम यादें। | हमारी-आपकी भूली-बिसरी तमाम यादें। | ||
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अपने हाथों को बरत सकूँ | अपने हाथों को बरत सकूँ | ||
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अपने पैरों पर चल पाऊँ- | अपने पैरों पर चल पाऊँ- | ||
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यह तो आपके अलावा कई औरों ने भी | यह तो आपके अलावा कई औरों ने भी | ||
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सिखाया है | सिखाया है | ||
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पर भेंट उन महाशय से आपके ज़रिये ही | पर भेंट उन महाशय से आपके ज़रिये ही | ||
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मुमकिन हुई, | मुमकिन हुई, | ||
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जो अतल की गहराइयों में डूब चुकने | जो अतल की गहराइयों में डूब चुकने | ||
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के बाद ही ऊपर उभरे थे, | के बाद ही ऊपर उभरे थे, | ||
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सालों फुटपाथ ही उनका ओढ़ना-बिछौना रहा | सालों फुटपाथ ही उनका ओढ़ना-बिछौना रहा | ||
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तभी तो वे | तभी तो वे | ||
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‘आर. आई. पी.’ का मतलब | ‘आर. आई. पी.’ का मतलब | ||
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‘रेस्ट इन पीस’ के अलावा | ‘रेस्ट इन पीस’ के अलावा | ||
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‘रिटर्न इज़ पासिबिल’ हमारे समेत सभी को | ‘रिटर्न इज़ पासिबिल’ हमारे समेत सभी को | ||
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बता पाए । | बता पाए । | ||
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यों तो जीवन में तनिक-सी भी | यों तो जीवन में तनिक-सी भी | ||
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ठोकर खाने के बाद | ठोकर खाने के बाद | ||
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मेरे भी मुँह से बहुतों की तरह | मेरे भी मुँह से बहुतों की तरह | ||
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सहसा ‘हे राम !’ निकला है | सहसा ‘हे राम !’ निकला है | ||
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पर उसका और गाँधी के ‘हे राम’ | पर उसका और गाँधी के ‘हे राम’ | ||
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का फ़र्क मैं कभी न जान पाता- | का फ़र्क मैं कभी न जान पाता- | ||
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अगर आपके संग-साथ मेरे | अगर आपके संग-साथ मेरे | ||
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जीवन का थोड़ा-सा सफ़र न बीता होता, | जीवन का थोड़ा-सा सफ़र न बीता होता, | ||
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ज़फ़र साहब । | ज़फ़र साहब । | ||
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लकवे से तिरछे पड़े मुँह और | लकवे से तिरछे पड़े मुँह और | ||
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अटपट हुई बोली को | अटपट हुई बोली को | ||
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सुधारते समय अपने से नफ़रत नहीं करना, | सुधारते समय अपने से नफ़रत नहीं करना, | ||
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बल्कि उस को दुलराना आपने ही सिखाया | बल्कि उस को दुलराना आपने ही सिखाया | ||
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जिस क्षण आप कह रहे थे- | जिस क्षण आप कह रहे थे- | ||
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‘आज का दिन वह दिन है | ‘आज का दिन वह दिन है | ||
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जिसके बारे में तुम्हें शक था | जिसके बारे में तुम्हें शक था | ||
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यह तुम्हारे लिए कभी नहीं आएगा...’ | यह तुम्हारे लिए कभी नहीं आएगा...’ | ||
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नए सिरे से मुझे अनुभव हुआ | नए सिरे से मुझे अनुभव हुआ | ||
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हम काफ़ी-कुछ भले ही कर पाएँ, | हम काफ़ी-कुछ भले ही कर पाएँ, | ||
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पर सब-कुछ तो अपने वश में नहीं होता- | पर सब-कुछ तो अपने वश में नहीं होता- | ||
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और वह काफ़ी–कुछ भी कितना | और वह काफ़ी–कुछ भी कितना | ||
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अनिश्चित, अरूप है ! | अनिश्चित, अरूप है ! | ||
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आत्म से अनात्म और अध्यात्म के | आत्म से अनात्म और अध्यात्म के | ||
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बीच जो भी अनाम या अबूझ | बीच जो भी अनाम या अबूझ | ||
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रिश्ते होते हों- | रिश्ते होते हों- | ||
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उनकी तरफ़ मेरा ध्यान ले जाने के लिए | उनकी तरफ़ मेरा ध्यान ले जाने के लिए | ||
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आपका शुक्रिया, ज़फ़र साहब ! | आपका शुक्रिया, ज़फ़र साहब ! | ||
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11:49, 1 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
कई-कई हादसों से गुज़रने के बावजूद
अपने आप को सूरमा समझने के भरम ने
जब एक बार फिर
मुझे आकाश से उतारकर धरती पर लिटाया
सभी प्रियजन-स्वजन
इलाज की भाग-दौड़ में व्यस्त हो गए-
वहाँ परदेस में लुंज-पुंज हो
मैं बेबस पड़ा था...
अनायास मुझे याद आए
मुग़लों के अंतिम सम्राट बहादुरशाह ज़फर
इस ग़म में मुब्तिला कि-
‘दो गज़ ज़मीं भी न मिली कूए–यार में’—
मुझे भी आत्मदया की गुंजलक में समेटते...
लगभग तभी मुझे मिले आप,
जफ़र साहब– एक चमत्कार की तरह
जो केवल इतना भर न था
कि वे थे ‘ज़फ़र’
और आप भी वही , गोकि दिल्लीवाले नही...
घुल मिलकर एक हुईं वतन की,
लखनऊ की,
हमारी-आपकी भूली-बिसरी तमाम यादें।
अपने हाथों को बरत सकूँ
अपने पैरों पर चल पाऊँ-
यह तो आपके अलावा कई औरों ने भी
सिखाया है
पर भेंट उन महाशय से आपके ज़रिये ही
मुमकिन हुई,
जो अतल की गहराइयों में डूब चुकने
के बाद ही ऊपर उभरे थे,
सालों फुटपाथ ही उनका ओढ़ना-बिछौना रहा
तभी तो वे
‘आर. आई. पी.’ का मतलब
‘रेस्ट इन पीस’ के अलावा
‘रिटर्न इज़ पासिबिल’ हमारे समेत सभी को
बता पाए ।
यों तो जीवन में तनिक-सी भी
ठोकर खाने के बाद
मेरे भी मुँह से बहुतों की तरह
सहसा ‘हे राम !’ निकला है
पर उसका और गाँधी के ‘हे राम’
का फ़र्क मैं कभी न जान पाता-
अगर आपके संग-साथ मेरे
जीवन का थोड़ा-सा सफ़र न बीता होता,
ज़फ़र साहब ।
लकवे से तिरछे पड़े मुँह और
अटपट हुई बोली को
सुधारते समय अपने से नफ़रत नहीं करना,
बल्कि उस को दुलराना आपने ही सिखाया
जिस क्षण आप कह रहे थे-
‘आज का दिन वह दिन है
जिसके बारे में तुम्हें शक था
यह तुम्हारे लिए कभी नहीं आएगा...’
नए सिरे से मुझे अनुभव हुआ
हम काफ़ी-कुछ भले ही कर पाएँ,
पर सब-कुछ तो अपने वश में नहीं होता-
और वह काफ़ी–कुछ भी कितना
अनिश्चित, अरूप है !
आत्म से अनात्म और अध्यात्म के
बीच जो भी अनाम या अबूझ
रिश्ते होते हों-
उनकी तरफ़ मेरा ध्यान ले जाने के लिए
आपका शुक्रिया, ज़फ़र साहब !