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"दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
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− | सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा, | + | पागल झंझा के प्रहार सा, |
− | सब कुछ ही यह चला जाएगा- | + | सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा, |
− | इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब ! | + | सब कुछ ही यह चला जाएगा- |
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दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब। | दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब। | ||
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23:42, 1 नवम्बर 2009 का अवतरण
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
तब ललाट की कुंचित अलकों-
तेरे ढरकीले आँचल को,
तेरे पावन-चरण कमल को,
छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।
मैं तो केवल तेरे पथ से
उड़ती रज की ढेरी भर के,
चूम-चूम कर संचय कर के
रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब।
पागल झंझा के प्रहार सा,
सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा,
सब कुछ ही यह चला जाएगा-
इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब !
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।