भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"जो रचा नहीं / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो |
|||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय | |संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatKavita}} | |
− | दिया सो दिया | + | <poem> |
− | उस का गर्व क्या, उसे याद भी फिर किया नहीं। | + | दिया सो दिया |
− | पर अब क्या करूँ | + | उस का गर्व क्या, उसे याद भी फिर किया नहीं। |
− | कि पास और कुछ बचा नहीं | + | पर अब क्या करूँ |
− | सिवा इस दर्द के | + | कि पास और कुछ बचा नहीं |
− | जो मुझ से बड़ा है—इतना बड़ा है कि पचा नहीं— | + | सिवा इस दर्द के |
− | बल्कि मुझ से अँचा नहीं— | + | जो मुझ से बड़ा है—इतना बड़ा है कि पचा नहीं— |
− | इसे कहाँ धरूँ | + | बल्कि मुझ से अँचा नहीं— |
− | जिसे देनेवाला भी मैं कौन हूँ | + | इसे कहाँ धरूँ |
− | क्योंकि वह तो एक सच है | + | जिसे देनेवाला भी मैं कौन हूँ |
− | जिसें मैं तो क्या रचता— | + | क्योंकि वह तो एक सच है |
− | :जो मुझी में अभी पूरा रचा नहीं! < | + | जिसें मैं तो क्या रचता— |
+ | :जो मुझी में अभी पूरा रचा नहीं! | ||
+ | </poem> |
21:53, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
दिया सो दिया
उस का गर्व क्या, उसे याद भी फिर किया नहीं।
पर अब क्या करूँ
कि पास और कुछ बचा नहीं
सिवा इस दर्द के
जो मुझ से बड़ा है—इतना बड़ा है कि पचा नहीं—
बल्कि मुझ से अँचा नहीं—
इसे कहाँ धरूँ
जिसे देनेवाला भी मैं कौन हूँ
क्योंकि वह तो एक सच है
जिसें मैं तो क्या रचता—
जो मुझी में अभी पूरा रचा नहीं!