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22:05, 3 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
मुझ में कुछ है
जो मेरा बिलकुल अपना है
जो है मेरे क्षीरोज्ज्वल मन के मन्थन का कोमल माखन।
जिस को मैं ने बहुत टूट कर
बहुत-बहुत अपने में रह कर
बहुत-बहुत सह कर पाया है-
जिस को अहरह दुलराया है।
गद्गद चिन्तन, आराधन, एकान्त समर्पण की घड़ियों में
वही-वही है : मेरा आश्रय, मेरा आत्मज, पूर्णभूत मैं।
जिस को स्वर में, लय में, शत चित्रों में,
शत-शत संकेतों में तुम को देना चाह रहा हूँ।
पर वह मेरी लब्धि
-शायद सागर-तटवासी अचल कपिल वह-
समाधिस्थ है :
कोंच रहे हैं उसको रह-रह
मेरे व्याकुल यत्न सहस्त्र-सहस्त्र सगर पुत्रों से सज्जित
(इस भय को भी भूल कि निश्चय भस्म सभी ये हो जायेंगे
जब उस की समाधि टूटेगी)
-कोंच रहे हैं : पर वह स्थिर है।
-जगा रहे हैं अनुक्षण : पर वह स्थिर है।
कब जागेगा-कब जागेगा
यह दर्पण-गिरि-गुहा निवासी ?
कब तुरीय त्यागेगा-
यह अन्तस्थ, अचल संन्यासी ?