भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कपड़े / अनूप सेठी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनूप सेठी }} <poem> '''1.''' कपड़े इतने सफेद कलफदार सलीके...)
 
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=अनूप सेठी
 
|रचनाकार=अनूप सेठी
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
 
 
'''1.'''
 
'''1.'''
 
कपड़े इतने सफेद कलफदार सलीकेदार कि  
 
कपड़े इतने सफेद कलफदार सलीकेदार कि  

22:21, 4 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

1.
कपड़े इतने सफेद कलफदार सलीकेदार कि
छिप गई उनमें सारी लुच्चई
दरिंदगी दुनिया भर की
इतने कौशल से ढँका सारा ढोंग कि
कपड़े बेचारे आखिर हो गए पारदर्शी

दरबार में और बारादरी में
झँडों इश्तिहारों नकाबों लंगोटों और चोगों के वेश में
घुमाए गए जितने ज्यादा
हुए कपड़े उतने ही मुखर

कपास ने किसान ने
बुनकर ने दर्जी ने धोबी ने
पानी ने चावल मैदे की कलफ ने लोहे की इस्त्री ने
लाज रखी कपड़े की
सफेदी की
अपनी जान पर और आन पर खेलकर

बच्चे सब हो गए बड़े

अपने ताने बाने में बुनी आखिर
राजा की नंगई का भेद खोलने को आतुर
कपड़े ने ही गझिन आत्मा बच्चे की। 

2.

कपड़े से ढकते हैं हम अपनी देह
कपड़े से रचते हैं अपना समाज

पसीना जब कपड़े को खा जाता है
कपड़ा देह पर हाथ फिराता है जैसे माँ की शीतल छाँह
कपड़े की तार-तार बज उठती है
झूम-झूम न्योछावर होता है कपड़ा

कपड़ा जब पड़ा रहता है अलमारियों ट्रँकों सँदूकों में
घुट घुट कर विदेह होता जाता है

सजी-धजी दुकानों में कपड़ा दिखता है
सुँदर मनोहारी फैशनेबल नया नकोर
जान निकल चुकी होती है तब तक कपड़े की
पैमाइश कर-कर काटी जाती हैं थानों के थान बाकायदा लाशें
गाड़ियां भर भर लोग ले जाते हैं
दुनिया भर में कारोबार को कंधा देता है कपड़ा

कपड़े से ढकते हैं हम अपनी देह
कपड़े से रचते हैं हम अपना समाज

कपड़ा बचाता फिरता है अपनी अस्मत।
                                  (1998)