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"ख़्वाब-ए-परीशाँ / अली सरदार जाफ़री" के अवतरणों में अंतर

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  '''ख्वाब-ए-परिशाँ'''
 
  '''ख्वाब-ए-परिशाँ'''

23:54, 5 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

 ख्वाब-ए-परिशाँ


मेरे दुश्मन की बेटी थी वो
उसकी राहों में बारूद थी
फ़र्शे-मख़मल न था
आग के पेड़ थे
और शाख़ों में अंगारों के फूल थे
सर पे मेरे वतन के जहाज़
और दुश्मन के तय्यारे मस्रूफ़े-पैकार थे
आसमाँ से क़यामत बरसने लगी

उसको मालूम था उसके दुश्मन का बेटा हूँ मैं
मुझको मालूम था मेरे दुश्मन की बेटी है वो
उसकी आँखों में मासूमियत, ख़ौफ़ और बेबसी थी
और उस ख़ौफ़ के गहरे गारों में
हर चीज़ गुम हो चुकी थी
रहनुमाओं की तक़रीरें
अहले-सियासत के दीवनापन के बयानात
अख़बारों के इक़्तिबासात<ref>गद्यांश</ref>
हथियारों के ताजिरों के जुनूँखे़ज़ एलान
रॉकेटों की सदा और तय्यारों<ref>वायुयान</ref> की घनगरज
कुछ न था
सिर्फ़ एक दिल धड़कने की आवाज़ थी
दो दिलों की वो आवाज़ जो एक दिल बन गए
हाथ से हाथ मस होने की
जिस्म से जिस्म छूने की आवाज़
और हम दोनों
बेताब साँसों के बेरब्त-से साएबाँ<ref>छाँव की जगह</ref> के तले
ख़ौफ़ के ग़ार में
सब बलाओं से महफ़ूज़ थे
उसका सारा बदन प्यार ही प्यार था
मेरा सारा बदन हुस्न की हुस्न था
इक नदी थी जो ख़ामोशी से बह रही थी
कोंपलें हँस रही थीं
फूल ख़ामोशी से खिल रहे थे
और दुश्मन की सरहद की ठण्डी हवाएँ
और मेरे वतन की महकती हवाएँ
गले मिल रही थीं
उनको परवाना-ए-राहदारी<ref>पासपोर्ट</ref> की कोई ज़रूरत न थी

रक़्से-इबलीस<ref>शैतान का नाच</ref>

और इतने में ज़र्रात फटने लगे
और हर ज़र्रे के दिल से ख़ुर्शीद का ख़ून उबलने लगा
नूर ने नार की शक्ल में
सारे जिन्नात, सारे शयातीन के पाँव की बेडि़याँ काट दीं
और फ़ज़ाओं में ज़हरीले सूरज बरसने लगे
फिर ख़लाओं में लाखों जहन्नम
हर तरफ रक़्से-इबलीस था
रक़्से-इबलीस का देखनेवाला कोई न था
हर तरफ उसकी आवाज़ थी
जैसे इक आतशीं क़हक़हा
कोई भी सुननेवाला न था
बस ख़ुदा, इक ख़ुदा
वहदहू-लाशरीक

रक़्से-इबलीस के बाद

इमारतें उड़ गयीं फ़ज़ा में
पहाड़ धुनकी हुई रूई के दहकते गाले
जो अपने शोलों से आसमानों को चाटते हैं
ख़लाओं की आतशीं हवाएँ<ref>सोलार विंड</ref>
जो क़ल्बे-ख़ुर्शीद में पली हैं
गुरूर से रक़्स कर रही हैं
ज़मीन वीरान हो चुकी है
न तोतले इश्क़ हैं न माँओं की उँगलियाँ हैं
न नन्हे-नन्हे हसीन कीडे़
न बुलबुलें हैं न कोयलें हैं
ज़मीन इक आग का कुर्रा है
दरख़्त हैं आग के
हवा आग की है
और आग का समन्दर
न कोई सरमायादार बाक़ी
न कोई मज़दूर रह गया है
न अब कोई इन्क़िलाब होगा
न कोई ताबीर और न कोई
हसीनो-दीवाना ख़्वाब होगा
न शाम होगी न जाम होगा
न दिल के सह्‌ने-हसीं में कोई हसीन मह्‌वे-ख़िराम<ref>धीमे-धीमे चलता हुआ</ref> होगा

हर एक शय आग बन चुकी है
जहन्नमों में बदल चुकि है
जो अस्लिहा बेचते थे
वो सब हैं नज़्रे-आतश
जिन्हें थी हथियारों से महब्बत
वो नज़्रे-आतश
जिन्हें थी हथियारों से अदावत
वो ऩज़्रे-आतश
जो क़त्ल करते थे नज़्रे आतश
जो क़त्ल होते थे नज़्रे आतश

हज़ारहा<ref>हज़ार का बहुवचन</ref> साल बाद अगर फिर ज़मीं बनेगी
न जाने कैसा निज़ाम होगा
ख़बर नहीं क्या वहाँ बशर का भी नाम होगा
सुनो इक आवाज़ आसमानों से जा रही है
निज़ामे-शम्सी<ref>सौरमण्डल</ref> उदास है
उसका एक सय्यारा खो गया है
जो वुस्‌अते-क़ाइनात का शोख़ो-शंग नीलम था<ref>अंतरिक्ष यात्रियों का कहना है कि अन्तरिक्ष से पृथ्वी एक नीले रंग के सितारे की तरह दिखाई देती है</ref>
अश्क बनकर टपक गया है

ये ख़ित्तःए-ज़म्हरीर जिस पर करोड़ों सदियाँ गुज़र चुकी हैं
करोड़ों नूरी बरस<ref>प्रकाश वर्ष</ref> जहाँ अपना सारा मफ़हूम खो चुके हैं<ref>अंतरिक्ष में समय का हिसाब सुरज के गिर्द पृथवी की परिक्रमा से नहीं होता बल्कि प्रकाश की गति से होता है</ref>
बिसाते रक़्क़ासःए-फ़लक था
ज़मीं की नीलम परी का मस्कन
और उसके अतराफ़ कहकशाओं के सिलसिले थे
तमाम सय्यारों से मुक़द्दस
पयम्बरों की ज़मीं
आयाते-आसमानी की जो अमीं थीं
वह नफ़अख़ोरों की शैतनत से शिकस्त खाकर
ख़ला में रूपोश हो गई है

ख़्वाबे-परीशाँ

ये ख़्वाब ख़्वाबे-परेशाँ था और कुछ भी न था
बशर ने रोक दिया दस्त-ज़ुल्मो-ज़ुल्मत को
ज़मीन अब भी दरख़शाँ है अब भी रक़्साँ है
फिर आरज़ू के चिरागों से दिल फ़ुरोज़ाँ है
वो ख़ौफ़ो-दर्द के गारों से आफ़ताब आये
वो हुस्नो-इश्क़ के रंगीन माहताब आये
वो बोसा-बोसा चमन-दर-चमन गुलाब आये

शब्दार्थ
<references/>