भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"क्या करूंगी मैं / आकांक्षा पारे" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) छो ("क्या करूंगी मैं / आकांक्षा पारे" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))) |
(कोई अंतर नहीं)
|
12:02, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
देहरी पर आती
पीली धूप के ठीक बीच खड़े थे तुम
प्रखर रश्मियों के बीच
कोई न समझ सका था तुम्हारा प्रेम
पूरे आंगन में, बिखरी पड़ी थी
तुम्हारी याचना,
पिता का क्रोध
भाई की अकड़
माँ के आँसू
शाम बुहारने लगी जब दालान
मैंने चुपके से समेट लिया
गुनगुनी धूप का वो टुकड़ा
क़ैद है आज भी वो
मखमली डिबिया में
रोशनी के नन्हे सितारे वाली डिबिया
नहीं खोलती मैं
सितारे निकल भागें दुख नहीं
बिखर जाए रोशनी परवाह नहीं
गर निकल जाए
डिबिया से
तुम्हारी परछाई का टुकड़ा
तो क्या करूंगी मैं?