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12:08, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
अपनी कहानियों में मैंने
उतारा तुम्हारे चरित्र को
उभार नहीं पाई
उसमें तुम्हारा व्यक्तित्व।
बांधना चाहा कविताओं में
रूप तुम्हारा
पर शब्दों के दायरे में
न आ सका तुम्हारा मन
इस बार रंगों और तूलिका से
उकेर दी मैंने तुम्हारी देह
असफलता ही मेरी नियति है
तभी सूनी है वह तुम्हारी आत्मा के बिन