भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"गाढे अंधेरे में / अशोक वाजपेयी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक वाजपेयी }} इस गाढे अंधेरे में यों तो हाथ को हाथ नह...)
 
 
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
|रचनाकार=अशोक वाजपेयी
 
|रचनाकार=अशोक वाजपेयी
 
}}  
 
}}  
 
+
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 
इस गाढे अंधेरे में
 
इस गाढे अंधेरे में
 
 
यों तो हाथ को हाथ नहीं सूझता
 
यों तो हाथ को हाथ नहीं सूझता
 
 
लेकिन साफ़-साफ़ नज़र आता है :
 
लेकिन साफ़-साफ़ नज़र आता है :
 
 
हत्यारों का बढता हुआ हुजूम,
 
हत्यारों का बढता हुआ हुजूम,
 
 
उनकी ख़ूंख़्वार आंखें,
 
उनकी ख़ूंख़्वार आंखें,
 
 
उसके तेज़ धारदार हथियार,
 
उसके तेज़ धारदार हथियार,
 
 
उनकी भड़कीली पोशाकें
 
उनकी भड़कीली पोशाकें
 
 
मारने-नष्ट करने का उनका चमकीला उत्साह,
 
मारने-नष्ट करने का उनका चमकीला उत्साह,
 
 
उनके सधे-सोचे-समझे क़दम।
 
उनके सधे-सोचे-समझे क़दम।
 
 
हमारे पास अंधेरे को भेदने की कोई हिकमत नहीं है
 
हमारे पास अंधेरे को भेदने की कोई हिकमत नहीं है
 
 
और न हमारी आंखों को अंधेरे में देखने का कोई वरदान मिला है।
 
और न हमारी आंखों को अंधेरे में देखने का कोई वरदान मिला है।
 
 
फिर भी हमको यह सब साफ़ नज़र आ रहा है।
 
फिर भी हमको यह सब साफ़ नज़र आ रहा है।
 
 
यह अजब अंधेरा है
 
यह अजब अंधेरा है
 
 
जिसमें सब कुछ साफ़ दिखाई दे रहा है
 
जिसमें सब कुछ साफ़ दिखाई दे रहा है
 
 
जैसे नीमरोशनी में कोई नाटक के दृश्य।
 
जैसे नीमरोशनी में कोई नाटक के दृश्य।
 
 
हमारे पास न तो आत्मा का प्रकाश है
 
हमारे पास न तो आत्मा का प्रकाश है
 
 
और न ही अंतःकरण का कोई आलोक :
 
और न ही अंतःकरण का कोई आलोक :
 
 
यह हमारा विचित्र समय है
 
यह हमारा विचित्र समय है
 
 
जो बिना किसी रोशनी की उम्मीद के
 
जो बिना किसी रोशनी की उम्मीद के
 
 
हमें गाढे अंधेरे में गुम भी कर रहा है
 
हमें गाढे अंधेरे में गुम भी कर रहा है
 
 
और साथ ही उसमें जो हो रहा है
 
और साथ ही उसमें जो हो रहा है
 
 
वह दिखा रहा है :
 
वह दिखा रहा है :
 
 
क्या कभी-कभार कोई अंधेरा समय रोशनी भी होता है?
 
क्या कभी-कभार कोई अंधेरा समय रोशनी भी होता है?
 +
</poem>

18:07, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

इस गाढे अंधेरे में
यों तो हाथ को हाथ नहीं सूझता
लेकिन साफ़-साफ़ नज़र आता है :
हत्यारों का बढता हुआ हुजूम,
उनकी ख़ूंख़्वार आंखें,
उसके तेज़ धारदार हथियार,
उनकी भड़कीली पोशाकें
मारने-नष्ट करने का उनका चमकीला उत्साह,
उनके सधे-सोचे-समझे क़दम।
हमारे पास अंधेरे को भेदने की कोई हिकमत नहीं है
और न हमारी आंखों को अंधेरे में देखने का कोई वरदान मिला है।
फिर भी हमको यह सब साफ़ नज़र आ रहा है।
यह अजब अंधेरा है
जिसमें सब कुछ साफ़ दिखाई दे रहा है
जैसे नीमरोशनी में कोई नाटक के दृश्य।
हमारे पास न तो आत्मा का प्रकाश है
और न ही अंतःकरण का कोई आलोक :
यह हमारा विचित्र समय है
जो बिना किसी रोशनी की उम्मीद के
हमें गाढे अंधेरे में गुम भी कर रहा है
और साथ ही उसमें जो हो रहा है
वह दिखा रहा है :
क्या कभी-कभार कोई अंधेरा समय रोशनी भी होता है?