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हर रोज़ रात को | हर रोज़ रात को |
20:46, 9 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
हर रोज़ रात को
जब रौशनी का गोल घेरा
मेरी किताब को छू रहा होता है
और बाकी शहर
सो रहा होता है
मुझे तुम्हारी याद आती है।
क्योंकि यह पहले भी हुआ है
कि सोते हुए शहर
और जागती हुई रोशनियों के बीच
हमने विराट को समेटने की कोशिश की है
नामालूम-सी।
तब यह सहज संभव लगता था
संबंधों के साए को समेटना..., फ़ैलाना
यह हमारे दायरे में आता था।
अब तुम उस दायरे से बाहर हो
मैं यहाँ बैठी-
सन्नाटे की आहटे सुनती हूँ
निःशब्द!
सोचती हूँ
क्यों इससे बेहतर कुछ नहीं हुआ?
संबंधों का साझा
हमसे नहीं सधा।
या यही सबसे बेहतर था?
बाकी सब इससे कमतर था!
यह रिक्ति अपेक्षाओं से परे है
शायद इसीलिए
अर्थहीनता की सीमा तक
जाने से बरी है।