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हममें बहुत कुछ एक-सा | हममें बहुत कुछ एक-सा |
22:30, 10 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
हममें बहुत कुछ एक-सा
और अलग था ...
वन्यपथ पर ठिठक कर
अचानक तुम कह सकती थीं
यह गन्ध वनचम्पा की है
और वह दूधमोगरा की,
ऐसा कहते तुम्हारी आवाज़ में उतर आती थी
वासन्ती आग में लिपटी
मौलसिरी की मीठी मादकता,
सागर की कोख में पलते शैवाल
और गहरे उल्लास में कसमसाते
संतरों का सौम्य उत्ताप
तुम्हें बाढ़ में डूबे गाँवों के अंधकार में खिले
लालटेन-फूलों की याद दिलाता था
जिनमें कभी हार नहीं मानने वाले हौसलों की इबारत
चमक रही होती थी।
मुझे फूल और चिड़ियों के नाम याद नहीं रहते थे
और न ही उनकी पहचान
लेकिन मैं पहचानता था रंगों की चालाकियाँ
खंजड़ी की ओट में तलवार पर दी जा रही धार की
महीन और निर्मम आवाज़ मुझे सुनाई दे जाती थी
रहस्यमय मुस्कानों के पीछे उठतीं
आग की ऊँची लपटों में झुलस उठता था
मेरा चौकन्नापन
और हलकान होती सम्वेदना का सम्भावित शव
अगोचर में सजता दिखता था मूक चिता पर।
तुम्हें पसन्द थी चैती और भटियाली
मुझे नज़रुल के अग्नि-गीत
तुम्हें खींचती थी मधुबनी की छवि-कविता
मुझे डाली1 का विक्षोभ
रात की देह पर बिखरे हिमशीतल नक्षत्रों की नीलिमा
चमक उठती थी तुम्हारी आँखों के निर्जन में
जहाँ धरती नई साड़ी पहन रही होती थी
और मैं कन्दराओं में छिपे दुश्मनों की आहटों का
अनुमान किया करता था।
हममें बहुत कुछ एक-सा
और अलग था...
एक थी हमारी धड़कनें
सपनों के इंद्रधनुष का सबसे उजला रंग ... एक था।
अकसर एक-सी परछाइयाँ थीं मौत की
घुटनों और कंधों में धँसी गोलियों के निशान एक-से थे
एक-से आँसू, एक-सी निरन्तरता थी
भूख और प्यास की,
जिन मुद्दों पर हमने चुना था यह जीवन
उनमें आज भी कोई दो-राय नहीं थी।
1. डाली - विश्वप्रसिद्ध चित्रकार सल्वाडोर डाली