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पाँड़े जी / उदय प्रकाश

No change in size, 18:13, 10 नवम्बर 2009
|संग्रह= अबूतर कबूतर / उदय प्रकाश
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उस दिन पाँड़े जी
 
बुलबुल हो गए
 
कलफ़ लगाकर कुर्ता टाँगा
 
कोसे का असली, शुद्ध कीड़ों वाला चाँपे का,
 
धोती नयी सफ़ेद, झक बगुला जैसी ।
 
और ठुनकती चल पड़ी
 
छोटी-सी काया उनकी ।
 
छोटी-सी काया पाँड़े जी की
 
छोटी-छोटी इच्छाएँ,
 
छोटे-छोटे क्रोध
 
और छोटा-सा दिमाग़ ।
 
गोष्ठी में दिया भाषण, कहा--
 
'नागार्जुन हिन्दी का जनकवि है'
 
फिर हँसे कि 'मैंने देखो
 
कितनी गोपनीय
 
चीज़ को खोल दिया यों ।
 
यह तीखी मेधा और
 
वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है ।'
 
एक स-गोत्र शिष्य ने कहा--
 
'भाषण लाजवाब था, अत्यन्त धीर-गम्भीर
 
तथ्यपरक और विशलेषणात्मक
 
हिन्दी की आलोचना के ख्च्चर
 
अस्तबल में
 
आप ही हैं एकमात्र
 
काबुली बछेड़े।'
 
तो गोल हुए पाँड़े जी
 
मंदिर के ढोल जैसे ।
 
ठुनुक-ठुनुक हँसे और
 
फिर बुलबुल हो गए
 
फूल कर मगन !
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