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"उर्दू की मुख़ालिफ़त में / नोमान शौक़" के अवतरणों में अंतर

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कोई झरने के संगीत सा
 
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मेरी हर तान सुनता रहे  
 
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एक ऊंची पहाड़ी प' बैठा हुआ
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सिर को धुनता रहे।
 
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झुंझलाहट का पुर-शोर सैलाब हूँ
 
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क़स्ब:--शहर को एक गहरे समुन्दर
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क़स्बा व शहर को एक गहरे समुन्दर
में ग़र्क़ाब करने के दर पै हूँ।
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इक ज़माने तलक
 
इक ज़माने तलक
अपने जैसों के कांधों पे'
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सिर रखके रोते रहे
 
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मैं भी और मेरे अजदाद भी
 
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मैं नहीं चाहता
 
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गालियां दूँ किसी को
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तो वह मुस्कुरा कर कहे -'मरहबा'
 
तो वह मुस्कुरा कर कहे -'मरहबा'
 
मुझे इतनी मीठी जुबाँ की
 
मुझे इतनी मीठी जुबाँ की
 
ज़रुरत नहीं।
 
ज़रुरत नहीं।
 
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19:07, 11 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

मैं नहीं चाहता
कोई झरने के संगीत सा
मेरी हर तान सुनता रहे
एक ऊँची पहाड़ी प' बैठा हुआ
सिर को धुनता रहे।

मैं अब
झुंझलाहट का पुर-शोर सैलाब हूँ
क़स्बा व शहर को एक गहरे समुन्दर
में ग़र्क़ाब करने के दर पे हूँ।

मैं नहीं चाहता
मेरी चीख़ को शायरी जानकर
क़द्रदानों के मजमे में ताली बजे
वाहवाही मिले
और मैं अपनी मसनद प' बैठा हुआ
पान खाता रहूँ
मुस्कुराता रहूँ।

मैं नहीं चाहता
कटे बाज़ुओं से मिरे
क़तरा क़तरा टपकते हुए
सुर्ख़ सैयाल मे कीमिया घोलकर
एक ख़ुशरंग पैकर बनाए
रऊनत का मारा मुसव्विर कोई
और ख़ुदाई का दावा करे।

इक ज़माने तलक
अपने जैसों के काँधों पे'
सिर रखके रोते रहे
मैं भी और मेरे अजदाद भी
अपने कानों में ही सिसकियाँ भरते-भरते
मैं तंग आ चुका
बस -

अपने हिस्से का ज़हर
अब मुख़ातिब की शह-रग में भी
दौड़ता, शोर करता हुआ
देखना चाहता हूँ।

मैं नहीं चाहता
गालियाँ दूँ किसी को
तो वह मुस्कुरा कर कहे -'मरहबा'
मुझे इतनी मीठी जुबाँ की
ज़रुरत नहीं।