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03:03, 19 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
पहले रुकी, झिझकी, लड़खड़ाई
फिर ऐसी चली कि
ज़िन्दगी देखती ही रह गई
कहने को थी वह सिर्फ़ कविता
पर ऐसी कि कायनात
उसके क़दमों में ढह गई।