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"मैं फँस गया हूँ / अश्वघोष" के अवतरणों में अंतर
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अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
छो (मैं फ़ँस गया हूँ / अश्वघोष का नाम बदलकर मैं फँस गया हूँ / अश्वघोष कर दिया गया है: सही शब्द ‘फँस’ है) |
(कोई अंतर नहीं)
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16:45, 21 नवम्बर 2009 का अवतरण
मैं फ़ँस गया हूँ अबके ऐसे बबाल में
फँसती है जैसे मछली, कछुए के जाल में।
उस आदमी से पूछो रोटी के फ़लसफ़े को
जो ढूँढता है रोटी पेड़ो की छाल में।
रूहों को कत्ल करके क़ातिल फ़रार है
ज़िन्दा है गाँव तब से मुर्दों के हाल में।
जो गन्दगी से उपर जन-मन को खुश करे
ऐसे कमल ही रोपिए संसद के ताल में।
गर मुफ़लिसी का मोर्चा तुमको है जीतना
कुछ ओर तेज़ी लाइए ख़ूँ के उबाल में।