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"पेड़ों के क़रीब / नीलेश रघुवंशी" के अवतरणों में अंतर

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03:35, 28 नवम्बर 2009 का अवतरण

 
जब होती हूं पेड़ों के करीब
उसके बालों की खुशबू याद आती है
अर्थ जब पीछा करते हैं
याद आते हैं - तोतले शब्द
पहन लेती हूं कवच तोतले शब्दों का
जागता है आत्मविश्वास मेरे अंदर
तोतले शब्दों की उंगली पकड़
बोलियों के बाजार में टहलती हूं
आसमान जब भर जाता है
हवाई यात्राओं से
याद आ जाती हैं पतंग की डोर अपने में लपेटे
उसकी नन्हीं उंगलियां
हवाई यात्राओं ने रास्ता छोड दिया है
डोर कसी हुई है उंग लि यों में
और पतंग में सवार हैं मेरे सपने
उनका शरीर है आदमकद आईन
जिसमें दिख रहे हैं सबके बौने कद
उसकी आंखों में उगता है सूरज
और-
खेलता है चांद
छिपाछिपउल का खेल
जब भी होती हूं पेड़ों के करीब ।