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"क्या गाऊँ / नरेन्द्र शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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::गाऊँ भी तो क्या गाऊँ?
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:गाऊँ भी तो क्या गाऊँ?
 
मैं रो गा कर अब कब तक मन बहलाऊँ?
 
मैं रो गा कर अब कब तक मन बहलाऊँ?
::यह लाइलाज रोगी मन है,
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:यह लाइलाज रोगी मन है,
::यह क्षुद्र पात्र-सा जीवन है,
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:यह क्षुद्र पात्र-सा जीवन है,
 
क्या मैं, मानव मैं इनमें सिमट समाऊँ?
 
क्या मैं, मानव मैं इनमें सिमट समाऊँ?
::इस क्षीण रुधिर की धारा का,
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:इस क्षीण रुधिर की धारा का,
::क्या बह सकना ही ध्येय बने,
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:क्या बह सकना ही ध्येय बने,
::धाराओं का गंगासागर—संगम-
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:धाराओं का गंगासागर—संगम-
::समाज या—गेय बने?
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:समाज या—गेय बने?
 
बन क्षुद्र रहूँ या मैं विशाल बन जाऊँ?
 
बन क्षुद्र रहूँ या मैं विशाल बन जाऊँ?
::बुन बुन उघेड़ता रहूँ सदा
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:बुन बुन उघेड़ता रहूँ सदा
::इस धूप-छाँह की जाली को?
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:इस धूप-छाँह की जाली को?
::क्या ओठों पर लाऊँ हरदम
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:क्या ओठों पर लाऊँ हरदम
::सब सब की जूठी प्याली को?
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:सब सब की जूठी प्याली को?
 
जाग्रत जीवित हो जिऊँ या कि मर जाऊँ?
 
जाग्रत जीवित हो जिऊँ या कि मर जाऊँ?
::है एक ओर इच्छाओं का
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:है एक ओर इच्छाओं का
::वासनाजनित छायान्धकार,
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:वासनाजनित छायान्धकार,
::औ दूर दूसरी ओर दीखता
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:औ दूर दूसरी ओर दीखता
::संयम का अवरुद्ध द्वार!
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:संयम का अवरुद्ध द्वार!
 
मैं श्रेय प्रेय में से किसको अपनाऊँ?
 
मैं श्रेय प्रेय में से किसको अपनाऊँ?
 
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15:34, 7 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

गाऊँ भी तो क्या गाऊँ?
मैं रो गा कर अब कब तक मन बहलाऊँ?
यह लाइलाज रोगी मन है,
यह क्षुद्र पात्र-सा जीवन है,
क्या मैं, मानव मैं इनमें सिमट समाऊँ?
इस क्षीण रुधिर की धारा का,
क्या बह सकना ही ध्येय बने,
धाराओं का गंगासागर—संगम-
समाज या—गेय बने?
बन क्षुद्र रहूँ या मैं विशाल बन जाऊँ?
बुन बुन उघेड़ता रहूँ सदा
इस धूप-छाँह की जाली को?
क्या ओठों पर लाऊँ हरदम
सब सब की जूठी प्याली को?
जाग्रत जीवित हो जिऊँ या कि मर जाऊँ?
है एक ओर इच्छाओं का
वासनाजनित छायान्धकार,
औ दूर दूसरी ओर दीखता
संयम का अवरुद्ध द्वार!
मैं श्रेय प्रेय में से किसको अपनाऊँ?