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"एक तुम हो / माखनलाल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर

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::कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।  
 
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::हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,  
 
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::तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,  
 
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::कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।  
 
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::तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,  
 
::तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,  
 
::तुझे सौगंध है भारत-धाम की आ,  
 
::तुझे सौगंध है भारत-धाम की आ,  

17:53, 12 दिसम्बर 2009 का अवतरण

गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो,
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।

कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।

तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,
तुझे सौगंध है भारत-धाम की आ,
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,
तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।
रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,
प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।

रचनाकाल: खण्डवा-१९४०