भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अनुपस्थिति / शिवप्रसाद जोशी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिवप्रसाद जोशी |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> फ़क़त पत्ते…)
 
छो ("अनुपस्थिति / शिवप्रसाद जोशी" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
 
(कोई अंतर नहीं)

22:35, 13 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

फ़क़त पत्ते हैं काँपते हुए
धूप और ठंड की मिली-जुली छुअन में
हवा अपना सूनापन गिरा रही है
और एक भयावह ख़ामोशी
फैली है चारों तरफ़

चिड़िया न जाने कहाँ छिप गईं
मक्खियाँ भी पड़ी होंगी अपनी हर तरफ़ चुप्पी के साए में
पंख समेटकर

सड़क यानी बिल्कुल खाली है
जो आ-जा रहे हैं वे भी जैसे अपनी-अपनी जगहों पर खड़े हैं
पदचाप तो छोड़ ही दीजिए
एक तिनका भी उड़ने से इंकार किए बैठा है

दीवार पर
और इधर
इस कमरे का हाल तो देखो
जैकेट गिरी है सोफ़े पर
मफ़लर कुर्सी पर पड़ा है
मेज़ पर कप-किताबें और कुछ सामान-सिक्के
जैसे ये अलस ही उनकी पहचान है
या इन पर कोई जादू गुज़र गया कोई

वह एक किताब उठाता है
जिसमें न जाने क्यों सहसा इतना वज़न है
एक पन्ना खोलता है जैसे कोई लोहे का गेट
समा गया भारीपन हर जगह

ओह किसे छुऊँ किसे उठाऊँ कहाँ रखूँ क़दम
वह सोचता है
कमरे में मँडराता हुआ

तमाम चीज़ें
उसके पास पड़ी हुई हैं अपने वजूद के इन्कार में
मुझे भी जड़ कर दो
मुझे भी न दो सोचने
मुझे भी न आने दो याद
मुझे भी ले जाओ अपनी निर्जीविता में
ओ चीज़ो !
ओ प्राणियो !

फड़फड़ाना मेरे मन किसी की स्मृति में
गिर जाना किताब के सारे अक्षर वहाँ
धूप वहीं अपनी चमक के टुकड़े करना
ठंड वहीं झर
जहाँ आत्मा छिप गई जाकर।