"वृक्ष और वल्लरी / माखनलाल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी |संग्रह=समर्पण / माखनलाल चतु…) |
|||
पंक्ति 50: | पंक्ति 50: | ||
:फूल अपने और इसके | :फूल अपने और इसके | ||
::हुआ कृष्णार्पण कि तेरी | ::हुआ कृष्णार्पण कि तेरी | ||
− | ::: | + | :::बाँसुरी बन जायगी यह! |
+ | |||
+ | :::प्यार पाकर सिर चढ़ी, तो | ||
+ | ::प्यार पाकर सूखती है, | ||
+ | :कलम कर दे लिपटना | ||
+ | फिर सौ गुनी लिपटायगी यह। | ||
+ | |||
+ | नदी का गिरना पतन है | ||
+ | :वल्लरी का शीश चढ़ना, | ||
+ | ::पतन की महिमा बनी तब | ||
+ | :::शीश पर हरियायगी यह। | ||
+ | |||
+ | :::मत चढ़ा चंदन चरण पर | ||
+ | ::मत इसे व्यंजन परोसे | ||
+ | :कुंभिपाकों ऊगती आई; | ||
+ | वहीं फल लायगी यह। | ||
+ | |||
+ | सहम मत, तेरे फलों का | ||
+ | :कौन-सा आलम्ब बेली? | ||
+ | ::तू भले, फल दे, न दे, | ||
+ | :::अपनी बहारों आयगी यह। | ||
+ | |||
+ | :::किस जवानी की अँधेरी-- | ||
+ | ::में बढ़े जा रहे दोनों | ||
+ | :बन्द कलियाँ, बन्द अँखियाँ | ||
+ | कौन-सा दिन लायगी यह। | ||
+ | |||
+ | |||
'''रचनाकाल: | '''रचनाकाल: | ||
</poem> | </poem> |
10:46, 14 दिसम्बर 2009 का अवतरण
वृक्ष, वल्लरि के गले मत—
मिल, कि सिर चढ़ जायगी यह,
और तेरी मित भुजाओं—
पर अमित हो छायगी यह।
हरी-सी, मनभरी-सी, मत—
जान, रुख लख, राह लख तू
मधुर तेरे पुष्प-दल हों,
कटु स्वफल लटकायगी यह।
भूल है, पागल, गिरी तो
यह न चरणों पर रहेगी
निकट के नव वृक्ष पर,
नव रंगिणी बल खायगी यह।
वृक्ष, तेरे शीश पर के
वृक्ष से लाचार है तू?
किन्तु तेरे शीश से, उस
शीश पर भी जायगी यह।
यह समर्पण-ऋण चुकाना—
दूर, मानेगी न छन भर
तव चरण से खींच कर—
रस और को मँहकायगी यह।
मत कहो इसको अभागिन,
यह कभी न सुहाग खोती,
लिपटना इसकी विवशता—
है लिपटती जायगी यह।
बस निकट भर ही पड़े
कि न बेर या कि बबूल देखे
आम्र छोड़ करील पर
आगे बढ़ी ही जायगी यह।
तू झुका दे डालियाँ चढ़ पाय
फिर क्यों शीश पर यह;
फलित अरमानों भरी
तेरे चरण आजायगी यह।
फेंक दे तू भूमि पर सब
फूल अपने और इसके
हुआ कृष्णार्पण कि तेरी
बाँसुरी बन जायगी यह!
प्यार पाकर सिर चढ़ी, तो
प्यार पाकर सूखती है,
कलम कर दे लिपटना
फिर सौ गुनी लिपटायगी यह।
नदी का गिरना पतन है
वल्लरी का शीश चढ़ना,
पतन की महिमा बनी तब
शीश पर हरियायगी यह।
मत चढ़ा चंदन चरण पर
मत इसे व्यंजन परोसे
कुंभिपाकों ऊगती आई;
वहीं फल लायगी यह।
सहम मत, तेरे फलों का
कौन-सा आलम्ब बेली?
तू भले, फल दे, न दे,
अपनी बहारों आयगी यह।
किस जवानी की अँधेरी--
में बढ़े जा रहे दोनों
बन्द कलियाँ, बन्द अँखियाँ
कौन-सा दिन लायगी यह।
रचनाकाल: