"हृदय / माखनलाल चतुर्वेदी" के अवतरणों में अंतर
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+ | :राष्ट्र का बलि, देश का ऊँचा ’हृदय’। | ||
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+ | :वज्र से दृढ़, शुचि-सुगंधी यज्ञ से, | ||
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+ | मन महोदधि है, वचन पीयूष है | ||
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+ | कौन है? है देश का जीवन यही,-- | ||
+ | ::और है वह जो कहाता है ’हृदय’। | ||
'''रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४ | '''रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४ | ||
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13:33, 18 दिसम्बर 2009 का अवतरण
वीर सा, गंभीर-सा है यह खड़ा,
धीर होकर यों अड़ा मैदान में,
देखता हूँ मैं जिसे तन-दान में,
जन-दान में, सानंद जीवन-दान में।
हट रहा है दंभ आदर-प्यार से,
बढ़ रहा जो आप अपनों के लिए,
डट रहा है जो प्रहारों के लिए,
विश्व की भरपूर मारों के लिए।
देवताओं को यहाँ पर बलि करो
दानवों का छोड़ दो सब दु:ख भय;
"कौन है?" यह है महान मनुष्य़ता
और, है संसार का सच्चा हृदय।
क्यों पड़ीं परतंत्रता की बेड़ियाँ?
दासता की हाय हथकड़ियाँ पड़ीं
न्याय के मुँह बन्द फाँसी के लिए,--
कंठ पर जंजीर की लड़ियाँ पड़ीं।
दास्य-भावों के हलाहल से हरे!
भर रहा प्यारा हमारा देश क्यों?
यह पिशाची उच्च-शिक्षा-सर्पिणी
कर रही वर वीरता निःशेष क्यों?
वह सुनो आकाश वाणी हो रही--
"नाश पाता जायगा तब तक विजय"--
वीर?--’ना’, धार्मिक? ’नहीं’ सत्कवि? ’नहीं’--
"देश में पैदा न हों जब तक ’हृदय’"।
देश में बलवान भी भरपूर हैं
और पुस्तक-कीट भी थोड़े नहीं,
हैं अमित धार्मिक ढले टकसाल के
पर किसी ने भी हृदय जोड़े नहीं।
ठोकरें खाती मनों की शक्तियाँ
’राम मूर्ति’ बने खुशामद कर रहे,
पूजते हैं,--देवता द्रवते नहीं,
दीन-दब्बू बन करोड़ों मर रहे।
’हे हरे! रक्षा करो’--यह मत कहो
चाहते हो इस दशा पर जो विजय,
तो उठो, ढूँढो, छुपा होगा वहीं
राष्ट्र का बलि, देश का ऊँचा ’हृदय’।
फूल से कोमल, छबीला रत्न से,
वज्र से दृढ़, शुचि-सुगंधी यज्ञ से,
अग्नि से जाज्वल्य, हिम से शीत भी,
सूर्य से देदीप्यमान, मनोज्ञ से।
वायु से पतला, पहाड़ों से बड़ा
भूमि से बढ़कर क्षमा की मूर्ति है;
कर्म का अवतार-रूप-शरीर जो-
श्वास क्या, संसार की वह स्फूर्ति है;
मन महोदधि है, वचन पीयूष है
परम निर्दय है, बड़ा भारी सदय;
कौन है? है देश का जीवन यही,--
और है वह जो कहाता है ’हृदय’।
रचनाकाल: प्रताप प्रेस, कानपुर-१९४४