"शिल्प-सौन्दर्य / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
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कोताहन क्यों मचा हुआ है? घोर यह | कोताहन क्यों मचा हुआ है? घोर यह | ||
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महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा | महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा | ||
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अथवा तोपों के मिस से हुंकार यह | अथवा तोपों के मिस से हुंकार यह | ||
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करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा | करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा | ||
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नही; महा संघर्षण से होकर व्यथित | नही; महा संघर्षण से होकर व्यथित | ||
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हरिचन्दन दावानल फैलाने लगा | हरिचन्दन दावानल फैलाने लगा | ||
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दुर्गमन्दिर के सब ध्वंस बचे हुए | दुर्गमन्दिर के सब ध्वंस बचे हुए | ||
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धूल उड़ाने लगे, पड़ी जो आँख में- | धूल उड़ाने लगे, पड़ी जो आँख में- | ||
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उनके, जिनके वे थे खुदवाये गये | उनके, जिनके वे थे खुदवाये गये | ||
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जिससे देख न सकते वे कर्त्तव्य-पथ | जिससे देख न सकते वे कर्त्तव्य-पथ | ||
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दुर्दिन-जल-धारा न सम्हाल सकी अहो | दुर्दिन-जल-धारा न सम्हाल सकी अहो | ||
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बालू की दीवार मुगल-साम्राज्य की | बालू की दीवार मुगल-साम्राज्य की | ||
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आर्य-शिल्प के साथ गिरा वह भी, जिसे | आर्य-शिल्प के साथ गिरा वह भी, जिसे | ||
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अपने कर से खोदा आलमगीर ने | अपने कर से खोदा आलमगीर ने | ||
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मुगल-महीपति के अत्याचारी, अबल | मुगल-महीपति के अत्याचारी, अबल | ||
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कर कँपने-से लगे। अहो यह क्या हुआ | कर कँपने-से लगे। अहो यह क्या हुआ | ||
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मुगल-अदृष्टाकाश-मध्य अति तेज से | मुगल-अदृष्टाकाश-मध्य अति तेज से | ||
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धूमकेतु से सूर्यमल्ल समुदित हुए | धूमकेतु से सूर्यमल्ल समुदित हुए | ||
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सिंहद्वार है खुला दीन के मुख सदृश | सिंहद्वार है खुला दीन के मुख सदृश | ||
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प्रतिहिंसा पूरित वीरो की मण्डली | प्रतिहिंसा पूरित वीरो की मण्डली | ||
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व्याप्त हो रही है दिल्ली के दुर्ग में | व्याप्त हो रही है दिल्ली के दुर्ग में | ||
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मुगल-महीपों के आवासादिक बहुत | मुगल-महीपों के आवासादिक बहुत | ||
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टूट चुके है, आम खास के अंश भी | टूट चुके है, आम खास के अंश भी | ||
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किन्तु न कोई सैनिक भी सन्मुख हुआ | किन्तु न कोई सैनिक भी सन्मुख हुआ | ||
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रोषानल से ज्वलित नेत्र भी लाल है | रोषानल से ज्वलित नेत्र भी लाल है | ||
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मुख-मण्डल भीषण प्रतिहिंसा पूर्ण है | मुख-मण्डल भीषण प्रतिहिंसा पूर्ण है | ||
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सूर्यमल्ल मध्याह्न सूर्य सम चण्ड हो | सूर्यमल्ल मध्याह्न सूर्य सम चण्ड हो | ||
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मोतीमस्जिद के प्रांगण में है खड़े | मोतीमस्जिद के प्रांगण में है खड़े | ||
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भीम गदा है कर में, मन में वेग है | भीम गदा है कर में, मन में वेग है | ||
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उठा, क्रुद्ध हो सबल हाथ लेकर गदा | उठा, क्रुद्ध हो सबल हाथ लेकर गदा | ||
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छज्जे पर जा पड़ा, काँपकर रह गई | छज्जे पर जा पड़ा, काँपकर रह गई | ||
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मर्मर की दीवाल, अलग टुकड़ा हुआ | मर्मर की दीवाल, अलग टुकड़ा हुआ | ||
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किन्तु न फिर वह चला चण्डकर नाश को | किन्तु न फिर वह चला चण्डकर नाश को | ||
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क्यों जी, यह कैसा निष्क्रिय प्रतिरोध है | क्यों जी, यह कैसा निष्क्रिय प्रतिरोध है | ||
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सूर्यमल्ल रुक गये, हृदय रुक गया | सूर्यमल्ल रुक गये, हृदय रुक गया | ||
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भीषणता रुक कर करुणा-सी हो गई। | भीषणता रुक कर करुणा-सी हो गई। | ||
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कहा- 'नष्ट कर देंगे यदि विद्वेष से - | कहा- 'नष्ट कर देंगे यदि विद्वेष से - | ||
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इसको, तो फिर एक वस्तु संसार की | इसको, तो फिर एक वस्तु संसार की | ||
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सुन्दरता से पूर्ण सदा के लिए ही | सुन्दरता से पूर्ण सदा के लिए ही | ||
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हो जायेगी लुप्त। बड़ा आश्चर्य है | हो जायेगी लुप्त। बड़ा आश्चर्य है | ||
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आज काम वह किया शिल्प-सौन्दर्य ने | आज काम वह किया शिल्प-सौन्दर्य ने | ||
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जिसे न करती कभी सहस्त्रो वक्तृता | जिसे न करती कभी सहस्त्रो वक्तृता | ||
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अति सर्वत्र अहो वर्जित है, सत्य ही | अति सर्वत्र अहो वर्जित है, सत्य ही | ||
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कहीं वीरता बनती इससें क्रूरता | कहीं वीरता बनती इससें क्रूरता | ||
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धर्म जन्य प्रतिहिंसा ने क्या-क्या नही | धर्म जन्य प्रतिहिंसा ने क्या-क्या नही | ||
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किया, विशेष अनिष्ट शिल्प साहित्य का | किया, विशेष अनिष्ट शिल्प साहित्य का | ||
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लुप्त हो गये कितने ही विज्ञान के | लुप्त हो गये कितने ही विज्ञान के | ||
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साधन, सुन्दर ग्रन्थ जलाये वे गये | साधन, सुन्दर ग्रन्थ जलाये वे गये | ||
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तोड़े गये, अतीत-कथा-मकरन्द को | तोड़े गये, अतीत-कथा-मकरन्द को | ||
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रहे छिपाये शिल्प-कुसुम जो शिला हो | रहे छिपाये शिल्प-कुसुम जो शिला हो | ||
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हे भारत के ध्वंस शिल्प! स्मृति से भरे | हे भारत के ध्वंस शिल्प! स्मृति से भरे | ||
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कितनी वर्णा शीतातप तुम सह चुके | कितनी वर्णा शीतातप तुम सह चुके | ||
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तुमको देख नितान्त करुण इस वेश मे | तुमको देख नितान्त करुण इस वेश मे | ||
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कौन कहेगा कब किसने निर्मित किया | कौन कहेगा कब किसने निर्मित किया | ||
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शिल्पपूर्ण पत्थर कब मिट्टी हो गये | शिल्पपूर्ण पत्थर कब मिट्टी हो गये | ||
− | + | किस मिट्टी की ईटे है बिखरी हुई | |
− | किस मिट्टी की ईटे है बिखरी हुई</poem> | + | </poem> |
01:13, 20 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
कोताहन क्यों मचा हुआ है? घोर यह
महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा
अथवा तोपों के मिस से हुंकार यह
करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा
नही; महा संघर्षण से होकर व्यथित
हरिचन्दन दावानल फैलाने लगा
दुर्गमन्दिर के सब ध्वंस बचे हुए
धूल उड़ाने लगे, पड़ी जो आँख में-
उनके, जिनके वे थे खुदवाये गये
जिससे देख न सकते वे कर्त्तव्य-पथ
दुर्दिन-जल-धारा न सम्हाल सकी अहो
बालू की दीवार मुगल-साम्राज्य की
आर्य-शिल्प के साथ गिरा वह भी, जिसे
अपने कर से खोदा आलमगीर ने
मुगल-महीपति के अत्याचारी, अबल
कर कँपने-से लगे। अहो यह क्या हुआ
मुगल-अदृष्टाकाश-मध्य अति तेज से
धूमकेतु से सूर्यमल्ल समुदित हुए
सिंहद्वार है खुला दीन के मुख सदृश
प्रतिहिंसा पूरित वीरो की मण्डली
व्याप्त हो रही है दिल्ली के दुर्ग में
मुगल-महीपों के आवासादिक बहुत
टूट चुके है, आम खास के अंश भी
किन्तु न कोई सैनिक भी सन्मुख हुआ
रोषानल से ज्वलित नेत्र भी लाल है
मुख-मण्डल भीषण प्रतिहिंसा पूर्ण है
सूर्यमल्ल मध्याह्न सूर्य सम चण्ड हो
मोतीमस्जिद के प्रांगण में है खड़े
भीम गदा है कर में, मन में वेग है
उठा, क्रुद्ध हो सबल हाथ लेकर गदा
छज्जे पर जा पड़ा, काँपकर रह गई
मर्मर की दीवाल, अलग टुकड़ा हुआ
किन्तु न फिर वह चला चण्डकर नाश को
क्यों जी, यह कैसा निष्क्रिय प्रतिरोध है
सूर्यमल्ल रुक गये, हृदय रुक गया
भीषणता रुक कर करुणा-सी हो गई।
कहा- 'नष्ट कर देंगे यदि विद्वेष से -
इसको, तो फिर एक वस्तु संसार की
सुन्दरता से पूर्ण सदा के लिए ही
हो जायेगी लुप्त। बड़ा आश्चर्य है
आज काम वह किया शिल्प-सौन्दर्य ने
जिसे न करती कभी सहस्त्रो वक्तृता
अति सर्वत्र अहो वर्जित है, सत्य ही
कहीं वीरता बनती इससें क्रूरता
धर्म जन्य प्रतिहिंसा ने क्या-क्या नही
किया, विशेष अनिष्ट शिल्प साहित्य का
लुप्त हो गये कितने ही विज्ञान के
साधन, सुन्दर ग्रन्थ जलाये वे गये
तोड़े गये, अतीत-कथा-मकरन्द को
रहे छिपाये शिल्प-कुसुम जो शिला हो
हे भारत के ध्वंस शिल्प! स्मृति से भरे
कितनी वर्णा शीतातप तुम सह चुके
तुमको देख नितान्त करुण इस वेश मे
कौन कहेगा कब किसने निर्मित किया
शिल्पपूर्ण पत्थर कब मिट्टी हो गये
किस मिट्टी की ईटे है बिखरी हुई