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"मोह / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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छोड़ द्रुमों की मृदु छाया  
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छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया  
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तोड़ प्रकृति से भी माया,
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:बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
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:::भूल अभी से इस जग को!
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तज कर तरल-तरंगों को,
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इन्द्-रधनुष के रंगों को,
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:तेरे भ्रू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
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:::भूल अभी से इस जग को!
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कोयल का वह कोमल-बोल,
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मधुकर की वीणा अनमोल,
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:कह, तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि! श्रवन?
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:::भूल अभी से इस जग को!
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ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
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सुधा रश्मि से उतरा जल,
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:ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहाला दूँ जीवन?
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:::भूल अभी से इस जग को!
  
बाले तेरे बाल जाल में
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'''रचनाकाल: जनवरी १९१८'''
कैसे उलझा दूँ लोचन?
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भूल अभी से इस जग को!
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तज कर तरल तरंगों को
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इन्द्रधनुष के रंगों को
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तेरे भ्रूभंगों से कैसे
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बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
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भूल अभी से इस जग को!
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कोयल का वह कोमल बोल
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मधुकर की वीणा अनमोल
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कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से
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कैसे भर लूँ सजनि श्रवण?
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भूल अभी से इस जग को!
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उषा सस्मित किसलय दल
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सुधा रश्मि से उतरा जल
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ना अधरामृत ही के मद में
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कैसे बहाला दूँ जीवन?
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भूल अभी से इस जग को!
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21:24, 22 दिसम्बर 2009 का अवतरण

छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल-तरंगों को,
इन्द्-रधनुष के रंगों को,
तेरे भ्रू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल-बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह, तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि! श्रवन?
भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा रश्मि से उतरा जल,
ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहाला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!

रचनाकाल: जनवरी १९१८