भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आलपिनों का शहर / महेश सन्तुष्ट" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेश सन्तुष्ट }} {{KKCatKavita}} <poem> आज फिर कोई मेरे सीने मे…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
21:55, 25 दिसम्बर 2009 का अवतरण
आज फिर कोई
मेरे सीने में
एक तीखी
आलपिन चुभो गया।
दर्द का
एक टुकड़ा
पाण्डुलिपि की तरह
मेरे सीने से जोड़ गया।
आजकल
आदमी भी
आलपिन से बदतर हो गया।
आलपिन हमेशा
छेद कर
दो पन्नों को जोड़ती है।
किन्तु आदमी
आदमी से जुड़ने के बाद
एक घिनौना छेद करता है।
और
एक-एक छेद से
मेरा सीना
छलनी नहीं बल्कि
आलपिनों का शहर हो गया!
मूल राजस्थानी से अनुवाद : दीनदयाल शर्मा