"देव शिल्पी / लीलाधर जगूड़ी" के अवतरणों में अंतर
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शुरू से ही पत्थरों ने देवताओं की भूमिका निभाई | शुरू से ही पत्थरों ने देवताओं की भूमिका निभाई | ||
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और देवताओं ने पत्थरों की | और देवताओं ने पत्थरों की | ||
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देवताओं के प्रसन्न वदन से मैं परिचित नहीं हूँ | देवताओं के प्रसन्न वदन से मैं परिचित नहीं हूँ | ||
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पर पत्थर के मूर्तिमान चेहरे की प्रसन्नत्ताएँ | पर पत्थर के मूर्तिमान चेहरे की प्रसन्नत्ताएँ | ||
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कभी एकानन,कभी चतुरानन | कभी एकानन,कभी चतुरानन | ||
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कभी पंचानन हो कर मेरा पीछा करती हैं | कभी पंचानन हो कर मेरा पीछा करती हैं | ||
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कभी त्रिनेत्र कभी सहस्रनेत्र हो कर मुझे देखते | कभी त्रिनेत्र कभी सहस्रनेत्र हो कर मुझे देखते | ||
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रहते हैं देवता | रहते हैं देवता | ||
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शास्त्रों में कहीं भी देवताओं की नाक का | शास्त्रों में कहीं भी देवताओं की नाक का | ||
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वैशिष्टय नहीं दिखता | वैशिष्टय नहीं दिखता | ||
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कहीं भी किसी की मसें भीगने और दाढ़ी बनाने | कहीं भी किसी की मसें भीगने और दाढ़ी बनाने | ||
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का | का | ||
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प्रसंग नहीं आता | प्रसंग नहीं आता | ||
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उनकी द्रष्टा होने की कथाएँ मिलती हैं घ्राता होने | उनकी द्रष्टा होने की कथाएँ मिलती हैं घ्राता होने | ||
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की नहीं | की नहीं | ||
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उन्हें सुगंध तो पसंद है पर उनकी घ्राण शक्ति के | उन्हें सुगंध तो पसंद है पर उनकी घ्राण शक्ति के | ||
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संकट | संकट | ||
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या चमत्कारों की गाथा नहीं मिलती | या चमत्कारों की गाथा नहीं मिलती | ||
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लेकिन पत्थरों में देवताओं की नाक बहुत | लेकिन पत्थरों में देवताओं की नाक बहुत | ||
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प्रभावित करती है | प्रभावित करती है | ||
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वही बताती है कि किधर है देवता का मुँह | वही बताती है कि किधर है देवता का मुँह | ||
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‘सुगंधिम् पुष्टि वर्धनम्’ | ‘सुगंधिम् पुष्टि वर्धनम्’ | ||
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सुगंधि से उनकी ताकत बढ़ती है | सुगंधि से उनकी ताकत बढ़ती है | ||
− | |||
वह ताकत जो अपने द्विभुज, चतुर्भुज, अष्टभुज में | वह ताकत जो अपने द्विभुज, चतुर्भुज, अष्टभुज में | ||
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भी | भी | ||
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एक ही नाक से काम चलाती है | एक ही नाक से काम चलाती है | ||
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किसी देवता में बदलता हुआ पत्थर आधा किसी | किसी देवता में बदलता हुआ पत्थर आधा किसी | ||
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वन्य पशु—सा | वन्य पशु—सा | ||
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आधा किसी जलजंतु—सा चिकना और सुघड़ | आधा किसी जलजंतु—सा चिकना और सुघड़ | ||
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बनाना पड़ता है | बनाना पड़ता है | ||
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मैं खदान ढूंढता हूँ और आनन विहीन पत्थर मुझे | मैं खदान ढूंढता हूँ और आनन विहीन पत्थर मुझे | ||
− | |||
ढूंढ लेता है | ढूंढ लेता है | ||
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मैं पत्थर को उठाता, बैठाता और खड़ा करता हूँ | मैं पत्थर को उठाता, बैठाता और खड़ा करता हूँ | ||
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और उसमें किसी न किसी देवता का मुँह ढूंढ | और उसमें किसी न किसी देवता का मुँह ढूंढ | ||
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लेता हूँ | लेता हूँ | ||
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अपनी आँखों से बड़ी बनाता हूँ मैं पत्थर की | अपनी आँखों से बड़ी बनाता हूँ मैं पत्थर की | ||
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आँखें | आँखें | ||
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मैं पत्थर के नाक—मुँह और हाथ—पाँव बनाने | मैं पत्थर के नाक—मुँह और हाथ—पाँव बनाने | ||
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लगता हूँ | लगता हूँ | ||
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अपने जीवन से गायब निर्भयता, पराक्रम ,वरदान | अपने जीवन से गायब निर्भयता, पराक्रम ,वरदान | ||
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और आशीर्वाद इत्यादि | और आशीर्वाद इत्यादि | ||
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पत्थर के जीवन में गढ़ने लगता हूँ | पत्थर के जीवन में गढ़ने लगता हूँ | ||
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अपने विषाद के मुकाबले मैं पत्थर को किंचित् | अपने विषाद के मुकाबले मैं पत्थर को किंचित् | ||
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मुस्कुराते हुए दिखाता हूँ | मुस्कुराते हुए दिखाता हूँ | ||
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मैं छोटे—से पत्थर में भी बड़े से बड़ा देवता | मैं छोटे—से पत्थर में भी बड़े से बड़ा देवता | ||
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बनाता हूँ | बनाता हूँ | ||
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शरीर की सारी मुद्राएँ बनाने के बाद | शरीर की सारी मुद्राएँ बनाने के बाद | ||
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देचता का हृदय नहीं बना पाता हूँ मैं | देचता का हृदय नहीं बना पाता हूँ मैं | ||
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न उसका दिमाग़ रच पाता हूँ | न उसका दिमाग़ रच पाता हूँ | ||
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उसके कान बना देता हूँ पर उसका सुनना नहीं | उसके कान बना देता हूँ पर उसका सुनना नहीं | ||
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बना पाता | बना पाता | ||
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आँखेँ बना देता हूँ पर देखना नहीं बना पाता | आँखेँ बना देता हूँ पर देखना नहीं बना पाता | ||
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क्या इस तरह मैं रोज़—रोज़ के रचनात्मक | क्या इस तरह मैं रोज़—रोज़ के रचनात्मक | ||
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झूठ | झूठ | ||
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बुलवाये और कबूलवाये जाने से मुक्त कर देता | बुलवाये और कबूलवाये जाने से मुक्त कर देता | ||
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हूँ ? | हूँ ? | ||
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मैं उनकी इन्द्रियाँ बनाता हूँ | मैं उनकी इन्द्रियाँ बनाता हूँ | ||
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पर इन्द्रियों का मज़ा नहीं बना पाता | पर इन्द्रियों का मज़ा नहीं बना पाता | ||
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जबकि देवताओं को सबसे प्रिय है आनंद | जबकि देवताओं को सबसे प्रिय है आनंद | ||
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ऐन्द्रिक सुखों के अतीन्द्रिय प्रतिनिधि | ऐन्द्रिक सुखों के अतीन्द्रिय प्रतिनिधि | ||
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देवता हो सकते हैं पत्थर नहीं | देवता हो सकते हैं पत्थर नहीं | ||
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पत्थर वे ही हो सकते हैं जिन्होंने अपनी | पत्थर वे ही हो सकते हैं जिन्होंने अपनी | ||
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सारी इन्द्रियाँ जीतने के नाम पर निष्क्रिय बना | सारी इन्द्रियाँ जीतने के नाम पर निष्क्रिय बना | ||
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डाली हों | डाली हों | ||
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इन्द्रियजित पत्थरों पर मैं इन्द्रियोन्मुख काम को | इन्द्रियजित पत्थरों पर मैं इन्द्रियोन्मुख काम को | ||
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बनाता हूँ | बनाता हूँ | ||
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मैं पत्थर के देवता बनाता हूँ | मैं पत्थर के देवता बनाता हूँ | ||
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उनकी अमरता नहीं बना पाता | उनकी अमरता नहीं बना पाता | ||
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पत्थर के जीवन तक ही रह पाता है पत्थर में | पत्थर के जीवन तक ही रह पाता है पत्थर में | ||
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देवता | देवता | ||
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दीन-दुखियों की प्रार्थना में देवताओं के लिए | दीन-दुखियों की प्रार्थना में देवताओं के लिए | ||
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सानुरोध गालियाँ सुन कर | सानुरोध गालियाँ सुन कर | ||
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पत्थरों तक का क्षरण शुरू हो जाता है | पत्थरों तक का क्षरण शुरू हो जाता है | ||
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मगर देवता नहीं पिघलते | मगर देवता नहीं पिघलते | ||
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यह तो उनकी बड़ी कृपा है | यह तो उनकी बड़ी कृपा है | ||
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कि वे मेरी छैनी-हथौड़ी के नीचे आ जाते हैं | कि वे मेरी छैनी-हथौड़ी के नीचे आ जाते हैं | ||
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उन्हें पता है कि चोटें उन पर नहीं पत्थरों पर पड़ | उन्हें पता है कि चोटें उन पर नहीं पत्थरों पर पड़ | ||
− | + | रही हैं। | |
− | रही | + | </poem> |
19:18, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
शुरू से ही पत्थरों ने देवताओं की भूमिका निभाई
और देवताओं ने पत्थरों की
देवताओं के प्रसन्न वदन से मैं परिचित नहीं हूँ
पर पत्थर के मूर्तिमान चेहरे की प्रसन्नत्ताएँ
कभी एकानन,कभी चतुरानन
कभी पंचानन हो कर मेरा पीछा करती हैं
कभी त्रिनेत्र कभी सहस्रनेत्र हो कर मुझे देखते
रहते हैं देवता
शास्त्रों में कहीं भी देवताओं की नाक का
वैशिष्टय नहीं दिखता
कहीं भी किसी की मसें भीगने और दाढ़ी बनाने
का
प्रसंग नहीं आता
उनकी द्रष्टा होने की कथाएँ मिलती हैं घ्राता होने
की नहीं
उन्हें सुगंध तो पसंद है पर उनकी घ्राण शक्ति के
संकट
या चमत्कारों की गाथा नहीं मिलती
लेकिन पत्थरों में देवताओं की नाक बहुत
प्रभावित करती है
वही बताती है कि किधर है देवता का मुँह
‘सुगंधिम् पुष्टि वर्धनम्’
सुगंधि से उनकी ताकत बढ़ती है
वह ताकत जो अपने द्विभुज, चतुर्भुज, अष्टभुज में
भी
एक ही नाक से काम चलाती है
किसी देवता में बदलता हुआ पत्थर आधा किसी
वन्य पशु—सा
आधा किसी जलजंतु—सा चिकना और सुघड़
बनाना पड़ता है
मैं खदान ढूंढता हूँ और आनन विहीन पत्थर मुझे
ढूंढ लेता है
मैं पत्थर को उठाता, बैठाता और खड़ा करता हूँ
और उसमें किसी न किसी देवता का मुँह ढूंढ
लेता हूँ
अपनी आँखों से बड़ी बनाता हूँ मैं पत्थर की
आँखें
मैं पत्थर के नाक—मुँह और हाथ—पाँव बनाने
लगता हूँ
अपने जीवन से गायब निर्भयता, पराक्रम ,वरदान
और आशीर्वाद इत्यादि
पत्थर के जीवन में गढ़ने लगता हूँ
अपने विषाद के मुकाबले मैं पत्थर को किंचित्
मुस्कुराते हुए दिखाता हूँ
मैं छोटे—से पत्थर में भी बड़े से बड़ा देवता
बनाता हूँ
शरीर की सारी मुद्राएँ बनाने के बाद
देचता का हृदय नहीं बना पाता हूँ मैं
न उसका दिमाग़ रच पाता हूँ
उसके कान बना देता हूँ पर उसका सुनना नहीं
बना पाता
आँखेँ बना देता हूँ पर देखना नहीं बना पाता
क्या इस तरह मैं रोज़—रोज़ के रचनात्मक
झूठ
बुलवाये और कबूलवाये जाने से मुक्त कर देता
हूँ ?
मैं उनकी इन्द्रियाँ बनाता हूँ
पर इन्द्रियों का मज़ा नहीं बना पाता
जबकि देवताओं को सबसे प्रिय है आनंद
ऐन्द्रिक सुखों के अतीन्द्रिय प्रतिनिधि
देवता हो सकते हैं पत्थर नहीं
पत्थर वे ही हो सकते हैं जिन्होंने अपनी
सारी इन्द्रियाँ जीतने के नाम पर निष्क्रिय बना
डाली हों
इन्द्रियजित पत्थरों पर मैं इन्द्रियोन्मुख काम को
बनाता हूँ
मैं पत्थर के देवता बनाता हूँ
उनकी अमरता नहीं बना पाता
पत्थर के जीवन तक ही रह पाता है पत्थर में
देवता
दीन-दुखियों की प्रार्थना में देवताओं के लिए
सानुरोध गालियाँ सुन कर
पत्थरों तक का क्षरण शुरू हो जाता है
मगर देवता नहीं पिघलते
यह तो उनकी बड़ी कृपा है
कि वे मेरी छैनी-हथौड़ी के नीचे आ जाते हैं
उन्हें पता है कि चोटें उन पर नहीं पत्थरों पर पड़
रही हैं।