"कुछ मुक्तक (ज़िन्दगी पर) / रमा द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर
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− | पर कुछ नही कह पाते | + | आज भी तो कम नहीं। |
− | सच्चाई का दांव भी, | + | भीष्म की चतुराइयों में भी, |
− | हार जाती | + | सिर झुकाती ज़िन्दगी॥ |
− | दुर्योधन की महत्वाकांक्षाएँ | + | आँख से सब देखते हैं, |
− | आज भी हर घर में | + | पर कुछ नही कह पाते हैं। |
− | कर्ण की अहंकारिता | + | सच्चाई का दांव भी, |
− | नष्ट करती | + | हार जाती ज़िन्दगी॥ |
− | दु:शासन आज भी तो | + | दुर्योधन की महत्वाकांक्षाएँ |
− | द्रौपदी का चीर हैं हर | + | आज भी हर घर में हैं। |
− | इक्कीसवीं-सदी में भी | + | कर्ण की अहंकारिता |
− | क्यों नग्न होती | + | नष्ट करती ज़िन्दगी॥ |
− | द्रौपदी के अपमान का | + | दु:शासन आज भी तो |
− | प्रतिशोध है यह | + | द्रौपदी का चीर हैं हर रहे। |
− | युद्ध की संभावना का | + | इक्कीसवीं-सदी में भी |
− | दंश है यह | + | क्यों नग्न होती ज़िन्दगी॥ |
− | धृतराष्ट्र की धृष्टता की , | + | द्रौपदी के अपमान का |
− | मोहताज़ है यह | + | प्रतिशोध है यह ज़िन्दगी। |
− | जीत में भी हार का | + | युद्ध की संभावना का |
− | अहसास सी है | + | दंश है यह ज़िन्दगी॥ |
− | भारत की आजादी ने | + | धृतराष्ट्र की धृष्टता की, |
− | नारियों को क्या दिया ? | + | मोहताज़ है यह ज़िन्दगी। |
− | भ्रूण-हत्या,वधु-हत्या,नग्न तन-मन | + | जीत में भी हार का |
− | यही सब देती रही है | + | अहसास सी है ज़िन्दगी॥ |
− | आधुनिक सभ्य समाज में भी, | + | भारत की आजादी ने |
− | नारी इंसान न बन सकी, | + | नारियों को क्या दिया? |
− | माँ,बहिन,पत्नी,प्रेयसी बन , | + | भ्रूण-हत्या,वधु-हत्या,नग्न तन-मन |
− | बस पिस रही है | + | यही सब देती रही है ज़िन्दगी॥ |
− | कौन सी यह सभ्यता है, | + | आधुनिक सभ्य समाज में भी, |
− | कुछ समझ आता नहीं। | + | नारी इंसान न बन सकी, |
− | खुश यहाँ कोई नहीं, | + | माँ,बहिन,पत्नी,प्रेयसी बन, |
− | बस मिट रही है | + | बस पिस रही है ज़िन्दगी॥ |
+ | कौन सी यह सभ्यता है, | ||
+ | कुछ समझ आता नहीं। | ||
+ | खुश यहाँ कोई नहीं, | ||
+ | बस मिट रही है ज़िन्दगी॥ | ||
+ | </poem> |
21:12, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
पद को पाने के लिए
साज़िश हुई है ज़िन्दगी।
किस तरह सिक्का जमे,
दूभर हुई है ज़िन्दगी॥
शकुनी की चालाकियाँ
आज भी तो कम नहीं।
भीष्म की चतुराइयों में भी,
सिर झुकाती ज़िन्दगी॥
आँख से सब देखते हैं,
पर कुछ नही कह पाते हैं।
सच्चाई का दांव भी,
हार जाती ज़िन्दगी॥
दुर्योधन की महत्वाकांक्षाएँ
आज भी हर घर में हैं।
कर्ण की अहंकारिता
नष्ट करती ज़िन्दगी॥
दु:शासन आज भी तो
द्रौपदी का चीर हैं हर रहे।
इक्कीसवीं-सदी में भी
क्यों नग्न होती ज़िन्दगी॥
द्रौपदी के अपमान का
प्रतिशोध है यह ज़िन्दगी।
युद्ध की संभावना का
दंश है यह ज़िन्दगी॥
धृतराष्ट्र की धृष्टता की,
मोहताज़ है यह ज़िन्दगी।
जीत में भी हार का
अहसास सी है ज़िन्दगी॥
भारत की आजादी ने
नारियों को क्या दिया?
भ्रूण-हत्या,वधु-हत्या,नग्न तन-मन
यही सब देती रही है ज़िन्दगी॥
आधुनिक सभ्य समाज में भी,
नारी इंसान न बन सकी,
माँ,बहिन,पत्नी,प्रेयसी बन,
बस पिस रही है ज़िन्दगी॥
कौन सी यह सभ्यता है,
कुछ समझ आता नहीं।
खुश यहाँ कोई नहीं,
बस मिट रही है ज़िन्दगी॥