"दुश्चक्र में स्रष्टा (कविता) / वीरेन डंगवाल" के अवतरणों में अंतर
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− | कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान, | + | {{KKCatKavita}} |
− | क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या! | + | <poem> |
+ | कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान, | ||
+ | क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या! | ||
− | छिपकली को ही ले लो, | + | छिपकली को ही ले लो, |
− | कैसे पुरखों | + | कैसे पुरखों |
− | की बेटी छत पर उल्टा | + | की बेटी छत पर उल्टा |
− | सरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को। | + | सरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को। |
− | फिर वे पहाड़! | + | फिर वे पहाड़! |
− | क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें? | + | क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें? |
− | और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो | + | और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो |
− | नदियाँ, वो? | + | नदियाँ, वो? |
− | सूंड हाथी को भी दी और चींटी | + | सूंड हाथी को भी दी और चींटी |
− | को भी एक ही सी कारआमद अपनी-अपनी जगह | + | को भी एक ही सी कारआमद अपनी-अपनी जगह |
− | हाँ, हाथी की सूंड में दो छेद भी हैं | + | हाँ, हाथी की सूंड में दो छेद भी हैं |
− | अलग से शायद शोभा के वास्ते | + | अलग से शायद शोभा के वास्ते |
− | वर्ना सांस तो कहीं से भी ली जा सकती थी | + | वर्ना सांस तो कहीं से भी ली जा सकती थी |
− | जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से। | + | जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से। |
+ | अरे, कुत्ते की उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना! | ||
+ | कैसी रसीली और चिकनी टपकदार, सृष्टि के हर | ||
+ | स्वाद की मर्मज्ञ और दुम की तो बात ही अलग | ||
+ | गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ | ||
+ | तुम्हारे ही मुखड़े पर झलती हुई। | ||
+ | आदमी बनाया, बनाया अंतड़ियों और रसायनों का क्या ही तंत्रजाल | ||
+ | और उसे दे दिया कैसा अलग सा दिमाग | ||
+ | ऊपर बताई हर चीज़ को आत्मसात करने वाला | ||
+ | पल-भर में ब्रह्माण्ड के आर-पार | ||
+ | और सोया तो बस सोया | ||
+ | सर्दी भर कीचड़ में मेढक सा | ||
− | + | हाँ एक अंतहीन सूची है | |
− | + | भगवान तुम्हारे कारनामों की, जो बखानी न जाए | |
− | + | जैसा कि कहा ही जाता है। | |
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+ | यह ज़रूर समझ में नहीं | ||
+ | आता कि फिर क्यों बंद कर दिया | ||
+ | अपना इतना कामयाब | ||
+ | कारखाना? नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पांच सौ सालों से | ||
+ | जहाँ तक मैं जानता हूँ | ||
+ | न बना कोई पहाड़ या समुद्र | ||
+ | एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी-कभार। | ||
+ | बाढ़ेँ तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकंप, | ||
+ | तूफ़ान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब | ||
+ | खूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार | ||
+ | रह गई सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी | ||
+ | वर्दियां जैसे | ||
+ | मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए | ||
+ | एक जैसी हुंकार, हाहाकार! | ||
+ | प्रार्थनाग्रृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलीशान! | ||
+ | मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से | ||
+ | वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार | ||
+ | ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून! | ||
+ | आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर | ||
+ | तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार? | ||
− | + | अपना कारखाना बंद कर के | |
− | + | किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान? | |
− | + | कौन - सा है वह सातवाँ आसमान? | |
− | + | हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!! | |
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− | किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान? | + | |
− | कौन - सा है वह सातवाँ आसमान? | + | |
− | हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान !!!< | + |
16:55, 1 जनवरी 2010 के समय का अवतरण
कमाल है तुम्हारी कारीगरी का भगवान,
क्या-क्या बना दिया, बना दिया क्या से क्या!
छिपकली को ही ले लो,
कैसे पुरखों
की बेटी छत पर उल्टा
सरपट भागती छलती तुम्हारे ही बनाए अटूट नियम को।
फिर वे पहाड़!
क्या क्या थपोड़ कर नहीं बनाया गया उन्हें?
और बगैर बिजली के चालू कर दी उनसे जो
नदियाँ, वो?
सूंड हाथी को भी दी और चींटी
को भी एक ही सी कारआमद अपनी-अपनी जगह
हाँ, हाथी की सूंड में दो छेद भी हैं
अलग से शायद शोभा के वास्ते
वर्ना सांस तो कहीं से भी ली जा सकती थी
जैसे मछलियाँ ही ले लेती हैं गलफड़ों से।
अरे, कुत्ते की उस पतली गुलाबी जीभ का ही क्या कहना!
कैसी रसीली और चिकनी टपकदार, सृष्टि के हर
स्वाद की मर्मज्ञ और दुम की तो बात ही अलग
गोया एक अदृश्य पंखे की मूठ
तुम्हारे ही मुखड़े पर झलती हुई।
आदमी बनाया, बनाया अंतड़ियों और रसायनों का क्या ही तंत्रजाल
और उसे दे दिया कैसा अलग सा दिमाग
ऊपर बताई हर चीज़ को आत्मसात करने वाला
पल-भर में ब्रह्माण्ड के आर-पार
और सोया तो बस सोया
सर्दी भर कीचड़ में मेढक सा
हाँ एक अंतहीन सूची है
भगवान तुम्हारे कारनामों की, जो बखानी न जाए
जैसा कि कहा ही जाता है।
यह ज़रूर समझ में नहीं
आता कि फिर क्यों बंद कर दिया
अपना इतना कामयाब
कारखाना? नहीं निकली कोई नदी पिछले चार-पांच सौ सालों से
जहाँ तक मैं जानता हूँ
न बना कोई पहाड़ या समुद्र
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं कभी-कभार।
बाढ़ेँ तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकंप,
तूफ़ान खून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए खूब
खूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार
रह गई सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी फौजी
वर्दियां जैसे
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार!
प्रार्थनाग्रृह ज़रूर उठाये गए एक से एक आलीशान!
मगर भीतर चिने हुए रक्त के गारे से
वे खोखले आत्माहीन शिखर-गुम्बद-मीनार
ऊँगली से छूते ही जिन्हें रिस आता है खून!
आखिर यह किनके हाथों सौंप दिया है ईश्वर
तुमने अपना इतना बड़ा कारोबार?
अपना कारखाना बंद कर के
किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन - सा है वह सातवाँ आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!!