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"प्रेम / धरती होने का सुख / केशव" के अवतरणों में अंतर

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19:24, 1 जनवरी 2010 का अवतरण

कुछ भी नहीं शेष
अदेखा
अनसुना
जो तुम्हारे साथ-साथ चलता है
किसी भी चीज़ का शेष नहीं
अनंत आकाश
भीगा हुआ
चूप्पी की बारिश में

मेरे ख़्याल
पीते हैं तुम्हें
ओक-ओक

आत्मा
थाह लेती है
आत्मा की

मुझमें
और क्या
प्रतीक्षा तुम्हारी

प्रेम
जगाता है मुझमें तृष्णा
जैसे चिड़िया की चोंच में दाना
अपनी प्यास बुझाता हूँ
तुम्हारी लहर से

प्रेम की
दहलीज़ पर खड़ा
देखता हूँ
तुम्हारी उपस्थिति की
लगातार बढ़ती चमक

आसमान के कुंज में
पंख फड़फड़ाते पंछी की तरह
प्रेम रहता है मुझमें
और समृद्ध करता है मुझे।

2

तुम मुझे
वंचित करता चाहती हो
उस स्पर्श से
जो तुम्हें
जीवित रखता है मुझमे
जो मुझे
चौराहों पर
देर तक
खड़ा नहीं रहने देता
जो मुझे
मोड़ता है तुम्हारी ओर
और तुममें करता है
मेरी यात्रा
आरंभ।