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"बऊ बाज़ार / पंकज पराशर" के अवतरणों में अंतर

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02:44, 2 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

यहाँ आई तो थी किसी एक की बनकर ही
लेकिन बऊ बाज़ार में अब किसी एक की बऊ नहीं रही मैं
 
ओ माँ!
अब तो उसकी भी नहीं जिसने सबके सामने
कुबूल, कुबूल,कुबूल कहकर कुबूल किया था निकाह
और दस सहस्र टका मेहर भी भरी महफ़िल में
 
उसने कितने सब्ज़बाग दिखाए थे तुम्हें
बाबा को गाड़ी और तुम्हें असली तंतु की साड़ी
माछ के लिए छोटा पोखर और धान के लिए खेत
जिसकी स्वप्निल हरियाली कैसे फैल गई थी तुम्हारी आँखों में
और...न जाने कहाँ खो गई थी तुम माँ!
 
यह जानकर तुम्हारी छाती फट जाएगी
कि जब लाठी और लात से नहीं बन सकी पालतू
तो भूख से हराया गया तुम्हारी बेटी को
जिससे हारते हुए मैंने तुम्हें बचपन से देखा है
 
रात के तीसरे पहर के निविड़ अंधकार में
सोचती हूँ कैसे बचे होंगे
इस बार की वृष्टि में पिसी माँ की बाड़ी
और चिंदी-चिंदी तुम्हारी साड़ी
 
मैं तो कुछ भी नहीं जान पाती यहाँ
कि छुटकी के रजस्वला होते ही
बाबा ने क्या उसे भी ब्याह दिया या क़िस्मत की धनी
वह अब तक है कुँआरी?
 
तुम्हें तो रतौंधी है माँ यह याद है मुझे
कि तुम देख नहीं सकती कुछ भी साँझ घिरते ही
 
चलो यह अच्छा ही हुआ कि तुम
देख नहीं सकती शाम को जो हर रोज़ उतरती है
मेरी ज़िंदगी में और-और स्याह बनकर
 
कभी पान खाकर कभी इलायची चबाकर
दारू की गंध को छिपाने की कोशिश करता हुआ
मेरा खरीददार खींच-खींचकर अलग करता है
मेरी देह से एक-एक कपड़ा
 
जैसे रोहू माछ की देह से उतार रहा हो एक-एक छिलका
छोटे-छोटे टुकड़ों में तलकर परोसने के लिए
आदमजात की थाली में।