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"नहुष (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर

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15:22, 16 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

‘‘नारायण ! नारायण ! साधु नर-साधना,
इन्द्र-पद ने भी की उसी की शुभाराधना।’’
गूँज उठी नारद की वीणा स्वर-ग्राम में,
पहुँचे विचरते वे वैजयन्ती धाम में।

आप इन्द्र को भी त्याग करके स्वपद का,
प्राश्चित करना पड़ा था वृत्र-वध का।
पृथ्वीपुत्र ने ही तब भार, लिया स्वर्ग का,
त्राता हुआ नहुष नरेन्द्र सुर-वर्ग का।
था सब प्रबन्ध यथापूर्ण भी वहाँ नया,
ढीला सब प्रबन्ध यथापूर्व भी वहाँ नया,
ढीला पड़ा तन्त्र फिर तान-सा दिया गया।
अभ्युत्थान देके नये इन्द्र ने उन्हें लिया,
मुनि से विनम्र व्यवहार उसने किया।
‘‘आज का प्रभात सुप्रभात, आप आये हैं,
दीजिए, जो आज्ञा स्वयं मेरे लिए लाये हैं।’’
‘‘दुर्लभ नरेन्द्र तुम्हें आज क्या पदार्थ है ?
दूँगा मैं बधाई अहा कैसा पुरुषार्थ है !’’
‘‘सीमा क्या यही है पुरुषार्थ की पुरुष के ?’’
मुद्रा हुई उत्सुक-सी मुख की नहुष के।
मुनि मुसकाये और बोले-‘‘यह प्रश्न धन्य !
कौन पुरुषार्थ भला इससे अधिक अन्य ?
शेष अब कौन-सा सुफल तुम्हें पाने को ?’’
‘‘फल से क्या, उत्सुक मैं कुछ कर पाने को।’’
‘‘वीर, करने को यहाँ स्वर्ग-सुख भोग ही,
जिसमें न तो है जरा-जीर्णता न रोग ही।
ऐसा रस पृथ्वी पर-‘‘मैंने नहीं पाया है,
यद्यपि क्या अन्त अभी उसका भी आया है।
मान्य मुने, अन्त में हमारी गति तो वहीं,
और मुझे गर्व ही है, लज्जा इसमें नहीं।
ऊँचे रहे स्वर्ग, नीचे भूमि को क्या टोटा है ?
मस्तक से हृदय कभी क्या कुछ छोटा है ?
व्योम रचा जिसने, उसी ने बसुधा रची,
किस कृति-हेतु नहीं उसकी कला बची ?
जीव मात्र को ही निज जन्मस्थान प्यारा है।’’
‘‘किन्तु भूलते हो, स्वर्गलोक भी तुम्हारा है।
करके कठोर तप, छोर नहीं जिसका,
देना पड़ता है फिर देह-मूल्य इसका।
कहते हैं, स्वर्ग नहीं मिलता बिना मरे,
नम्र हुआ नहुष सलज्ज मुसकान में,-
‘‘त्रुटि तो नहीं थी यही मेरे मूल्य-दान में ?’’
‘‘पूर्णता भी चाहती है ऐसी त्रुटि चुनके।’’
‘‘मैं अनुगृहीत हुआ आज यह सुनके।
देव, यहाँ सारे काम-कामज देखता हूँ मैं,
निज को अकेला-सा परन्तु लेखता हूँ मैं।
चोट लगती है, यह सोचता हूँ मैं जहाँ,-
छूते ही किसी को नहीं इस तनु से यहाँ ?
यद्यपि कुभाव नहीं कोई भी जनाता है,
तो भी स्वाभिमान मुझे विद्रोही बनाता है।’’
‘‘आह ! मनोदुर्बलता, वीर, यह त्याज्य है,
आप निर्जरों ने तुम्हें सौंपा निज राज्य है।
दानवों से रक्षा कर भोगो इस गेह को,
माने देव-मन्दिर ही निज नर देह को।’’
‘‘आपकी कृपा से मिटी ग्लानि मेरे मन की,
प्रकट कृतज्ञता हो कैसे इस जन की ?’’
बोल हँस नारद प्रसन्न कल वर्णों से-
‘‘ज्ञाता है अधिक मेरा मन ही स्वकर्णों से !’’

दिव्य भाग पाके भव्य याग तथा त्याग से,
रंजक भी राजा अब रंजित था राग से!
ऐसा कर पाके धन्य स्वर्ग का भी आग था,
नर के लिए भी यह चरम सुयोग था।
सेवन से और बढ़ते विषय हैं,
अर्थ जितने हैं सब काम में ही लय हैं।
एक बार पीकर प्रमत्त जो हुआ जहाँ,
सुध फिर अपनी-परायी उसको कहाँ ?
देव-नृत्य देख, देव-गीत-वाद्य सुनके,
नन्दन विपिन के अनोखे फूल चुनके,
इच्छा रह जाती किस अन्य फल की उसे ?
चिन्ता न थी आज किसी अन्य कल की उसे !
प्रस्तुत समझ उसे स्वर्न की-सी बातें थीं,
सोकर क्या खोने के लिए वे रम्य रातें थीं ?
प्रातःकाल होता था विहार देव-नद में,
किंवा चन्द्रकान्त मणियों के हृद्य हृद में।
नेत्र ही भरे थे नरदेव के न मद से,
होती थी प्रकट एक झूम पद पद से।
ऊपर से नीते तक मत्तता न थी कहाँ,
ऐरावत से भी दर्शनीय वह था वहाँ।
अधमुँदी आँखें अहा ! खुल गईं अन्त में,-
पाकर शची की एक झलक अनन्त में।
पति की प्रतीक्षा में निरत व्रतस्नेह में,
काट रही थी जो काल सुरगुरु-गेह में।
आया था विहारी नृप-राज-हंस-तरि से,
वह निकली ही थी नहाके सुरसरि से।
निकली नई-सी वह वारि से वसुन्धरा,
वर तो वही है बड़ा जिसने उसे वरा।
एक घटना-सी घटी सुषमा की सृष्टि में,
अद्भुत यथार्थता थी कल्पना की दृष्टि में।
पूछना पड़ा न उसे परिचय उसका,
कर उठीं अप्सराएँ जय जय उसका।
‘‘ओहो यह इन्द्राणी !’’-उसांस भर बोला वह,
बैठा रहके भी आज आसान से जोला वह।
मन था निवृत्त हुआ अप्सरा-विहार से,
‘‘यह इसी, वह छिपी दामनी-सी क्षण में,
जागी ती बीच नई क्रान्ति कण कण में।
मेरी साधना की गति आगे नहीं जा सकी,
सिद्धि की झलक एक दूर से ही पा सकी।
विस्मय है, किन्तु यहाँ भूला रहा कैसा मैं,
इन्द्राणी उसी की इन्द्र है जो, आज जैसा मैं।
वह तो रहेगी वही, इन्द्र जो हो सो सही,
होगी हाँ कुमारी फिर चिर युवती वही।
तो क्यों मुझे देख वह सहसा चली गई,
आह ! मैं छला गया हूँ वा वही छली गई ?
एक यही फूल है जो हो सके पुनः कली !
इतने दिनों तक क्यों मैंने सुधि भी न ली।
इन्द्र होके भी मैं गृहभ्रष्ट-सा यहाँ रहा,
लाख अप्सराएँ रहें, इन्द्राणी कहाँ अहा !
ऊलती तरंगों पर झूलती-सी निकली,
दो दो करी-कुम्भी यहाँ हूलती-सी निकली।
क्या शक्रत्व मेरा, जो मिली न शची भामिनी,
बाहर की मेरी सखी भीतर की स्वामिनी।
आह ! कैसी तेजस्वनी आभिजात्य-अमला,
निकली, सुनीर से यों क्षीर से ज्यों कमला।
एक और पर्त्त-सा त्वचा का आर्द्र पट था,
फूट-फट रूप दूने वेग से प्रकट था।
तो भी ढके अंग घने दीर्घ कच-भार से,
सूक्ष्म थी झलक किन्तु तीक्ष्ण असि-धार से।
दिव्य गति लाघव सुरांगनाओं ने धरा,
स्वर्ग में सुगौरव तो वासवी ने ही भरा।
देह धुली उसकी वा गंगाजल ही धुला,
चाँदी घुलती थी जहाँ सोना भी वहा घुला।
मुक्ता तुल्य बूँदें टपकीं जो बड़े बालों से,
चू रहा था विष वा अमृत वह व्यालों से।
आ रही हैं। लहरें अभी तक मुझे यहाँ,
जल-थल-वायु तीनों पानेच्छुक थे वहाँ।
बाह्य ही जहाँ का बना जैसे एक सपना,
देखता मैं कैसे वहाँ अन्त-पर अपना।
सबसे खिंचा-सा रहा उद्धत प्रथम मैं,
फिर जिस ओर गया हाय ! गया रम मैं।
वस्तुतः शची के लिए बात थी विषाद की,
मागूँगा क्षमा मैं आज अपने प्रमाद की।
ऊँचा यह भाल स्वर्ग-भार धरे जावेगा,
उसके समक्ष झुक गौरव ही पावेगा।’’
दूती भेज उसने शची से कहलाया यों-
‘‘वैजयन्त-धाम देवरानी ने भुलाया क्यों ?
दूना-सा अकेले मुझे शासन का भार है,
आधा कर दे जो उसे ऐसा सहचार है।
सह नहीं सकता विलम्ब और अब मैं,
आज्ञा मिले, आऊँ स्वयं लेने कहाँ कब मैं ?’’
उत्तर मिला-‘‘तुम्हें बसाया वैजयन्त में,
चाहते हो मेरा धर्म भी क्या तुम अन्त में ?
जैसे धनी-मानी गृही जाय तीर्थ-कृत्य को,
और घर-वार सौंप जाय भले भृत्य को,
सौंपा अपने को यह राज्य वैसे जानो तुम,
थाती इसे मानो, निज धर्म पहचानो तुम।
त्यागो शची-संग रहने की पाप-वासना,
हर ले नरत्व भी न कामदेवोपासना।’’

जा सुनाया दूती ने सुरेश्वरी ने जो कहा,
सुनके नहुष आप आपे में नहीं रहा।
‘‘अच्छा ! इन्द्र पद का नहीं हूँ अधिकारी मैं ?
सेवक-सामान देव-शासनानुचारी मैं ?
स्वर्ग-राज तो क्या, अपवर्ग भी है एक पण्य,
मूल्य गिन दे जो धनी, ले ले वह आप गण्य।
असुर पुलोम-पुत्री इन्द्राणी बने जहाँ,
नर भी क्यों, इन्द्र नहीं बन सकता वहाँ ?
कौन कहता है, नहीं आज सुर-नेता मैं ?
पाकशासनासन का मूल्यदाता, क्रेता मैं।
साग्रह सुरों ने मुझे सौंपी स्वयं शक्रता
कैसी फिर आज यह वासवी की वक्रता ?
प्रस्तुत मैं मान रखने को एक तृण का,
और मैं ऋणी हूँ परमाणु के भी ऋण का।
अपना अनादर परन्तु यदि मैं सहूँ,
तो फिर पुरुष हूँ मैं, किस मुँह से कहूँ ?’’

झूला हठ-बाल पाके मन्मथ का पालना,
झूला हठ-बाल पाके मन्मथ का पालना,
पाने से कठिन किसी पद का सँभालना।
देव-कुल-गुरु को प्रणाम कर दूत ने,
संदेसा सुनाया, जो कहा था पुरहूत ने।
‘‘आपकी कृपा से देव-कार्य विघ्न-हीन है,
जाकर रसातल में दैत्य-दल दीन है।
बाहर की जितनी व्यवस्था, सब ठीक है,
घर की अवस्था किन्तु शून्य, अलोक है।
फिर भी शची थीं इस बीच आपके यहाँ,
और मायके-सा मोद पा रही थीं वे वहाँ।
आज्ञा मिले, आऊँ उन्हें लेने स्वयं प्रीति से,
आप जो बतावें उसी राजोचित रीति से।’’
‘‘सुन लिया मैंने, प्रतिवाक्य पीछे जायगा,
कहना, विलम्ब व्यर्थ होने नहीं पायगा,
कहना, विलम्ब व्यर्थ होने नहीं पायगा।’’
कह गुरुदेव ने यों दूत को विदा किया,
और मन्त्रणार्थ मुख देवों को बुला लिया।
बैठे यथास्थान सब सभ्य उन्हें नत हो,
बोले गुरु-‘‘सुगत सुचिन्तित सुमत हो !
ईश्वर का जीव से है मानो यही कहना-
‘तू निश्चिन्त होकर कभी न बैठ रहना।’
नर अधिकारी आज देवराज-पद का,
किंवा वह लक्ष हुआ हाय ! सुर-मद का।
सम्प्रति शची में हठी नहुष निरत है,
सोचो कुछ यत्न यह उससे विरत है।’’
माँग जो नहुष की थी, सबने सुनी, गुनी,
किन्तु कहाँ हो सके हैं एक मत दो मुनी ?
एक ने उचित मानी, अनुचित अन्य ने,
तो भी दिया मुक्त मत किस मतिमन्य ने ?
तर्क स्वयं भटका है खोजने जा तत्व को,
फिर भी न माने कौन उसके महत्व को ?
शंका-वधू जेठी, वर हेठा समाधान है !
बोले श्रीद-‘‘मत तो शची का ही प्रधान है।’’
‘‘मेरा मत ?’’ मानधना बोली-‘‘पूछते हो आज ?
पूछ लूँ क्या मैं भी, क्यों बनाया उसे देवराज ?
कोई न था तुममें जो भार धरे तब लों,
स्वामी कहीं प्रायश्चित पूरा करें जब लों ?’’
हाय महादेवि !’’ बोले व्यथित वरुण यों-
‘‘अने ही ऊपर क्यों आप अकरुण यों ?
मारा जिस वज्र ने है वृत्र को अभी अभी,
होता नहीं निष्फल प्रयोग जिसका कभी।
काटा नहीं जा सकता वज्र से भी कर्म तो !
व्यर्थ वह भी है यहाँष अक्षत है धर्म तो,
कोई जो बड़े से बड़ा फल भी न पायगा,
ऊँचे उठने का फिर कष्ट क्यों उठायेगा ?
कर्म ही किसी के उसे योग्य फलदायी हैं,
देव पक्षपाती नहीं, समदर्शी, न्यायी हैं।
योग्य अनुगत को बढ़ाते क्यों न आने हम ?
दान-मान देने में कृति को कहाँ भागे हम ?
वस्तुस्थिति जो है, वह आपके समक्ष है,
और कुछ भी हो,उसका भी एक पक्ष है।
आपके लिए भी विधी है, यदि उसे वरें,
सोचें परिणाम फिर आप कुछ भी करें।’’
‘‘मैं तो मनःपूत को ही मानती हूँ आचरण;
ऐच्छिक विषय मेरा व्यक्ति-वरणावरण।
सत्ता है समाज की है, वह जो करे, करे,
एक अवला का क्या, जिये जिये; मरे, मरे !
किंवा यह सारी कृपा ऋषि-मुनियों की है,
गरिमा गभीर गूढ़ उन गुनियों की है।
मारने की आततायी बह्मदैत्य यति को,
हत्या ऋषियों ने ही लगाई देवपति को।
धिक् वह विधि ही निषिद्ध मेरी स्मृति में,
दोष मात्र देखे जो हमारी कृति-कृति में !
हमने किया तो आत्म-रक्षा के लिए किया,
ध्यान इस पर भी किसी ने कुछ है दिया ;
आहुतियाँ देके इस नहुष अभाग को,
दूध ऋषियों ने ही पिलाया कालनाग को।
अच्छा तो उठाके वही कन्धों पर शिविका,
लावें उस नर को बनाके वर दिवि का।’’
‘‘अलमिति’’ बोल उठे वाचस्पति-‘‘हो गया,
यान हो शची के नये वर का यही नया !’’