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+ | यदि बाधाएँ हुईं हमें तो, उन बाधाओं के ही साथ, | ||
+ | :जिससे बाधा-बोध न हो, वह सहनशक्ति भी आई हाथ। | ||
+ | जब बाधाएँ न भी रहेंगी, तब भी शक्ति रहेगी यह, | ||
+ | :पुर में जाने पर भी वन की, स्मृति अनुरक्ति रहेगी यह॥ | ||
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+ | नहीं जानती हाय! हमारी, माताएँ आमोद-प्रमोद, | ||
+ | :मिली हमें है कितनी कोमल, कितनी बड़ी प्रकृति की गोद। | ||
+ | इसी खेल को कहते हैं क्या, विद्वज्जन जीवन-संग्राम? | ||
+ | :तो इसमें सुनाम कर लेना, है कितना साधारण काम! | ||
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+ | "बेचारी उर्मिला हमारे, लिए व्यर्थ रोती होगी, | ||
+ | :क्या जाने वह, हम सब वन में, होंगे इतने सुख-भोगी।" | ||
+ | मग्न हुए सौमित्रि चित्र-सम, नेत्र निमीलित एक निमेष, | ||
+ | :फिर आँखें खोलें तो यह क्या, अनुपम रूप, अलौकिक वेश! | ||
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+ | चकाचौंध-सी लगी देखकर, प्रखर ज्योति की वह ज्वाला, | ||
+ | :निस्संकोच, खड़ी थी सम्मुख, एक हास्यवदनी बाला! | ||
+ | रत्नाभरण भरे अंगो में, ऐसे सुन्दर लगते थे-- | ||
+ | :ज्यों प्रफुल्ल बल्ली पर सौ सौ, जुगनूँ जगमग जगते थे! | ||
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+ | थी अत्यन्त अतृप्त वासना, दीर्घ दृगों से झलक रही, | ||
+ | :कमलों की मकरन्द-मधुरिमा, मानो छवि से छलक रही। | ||
+ | किन्तु दृष्टि थी जिसे खोजती, मानो उसे पा चुकी थी, | ||
+ | :भूली-भटकी मृगी अन्त में अपनी ठौर आ चुकी थी॥ | ||
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14:01, 28 जनवरी 2010 का अवतरण
यदि बाधाएँ हुईं हमें तो, उन बाधाओं के ही साथ,
जिससे बाधा-बोध न हो, वह सहनशक्ति भी आई हाथ।
जब बाधाएँ न भी रहेंगी, तब भी शक्ति रहेगी यह,
पुर में जाने पर भी वन की, स्मृति अनुरक्ति रहेगी यह॥
नहीं जानती हाय! हमारी, माताएँ आमोद-प्रमोद,
मिली हमें है कितनी कोमल, कितनी बड़ी प्रकृति की गोद।
इसी खेल को कहते हैं क्या, विद्वज्जन जीवन-संग्राम?
तो इसमें सुनाम कर लेना, है कितना साधारण काम!
"बेचारी उर्मिला हमारे, लिए व्यर्थ रोती होगी,
क्या जाने वह, हम सब वन में, होंगे इतने सुख-भोगी।"
मग्न हुए सौमित्रि चित्र-सम, नेत्र निमीलित एक निमेष,
फिर आँखें खोलें तो यह क्या, अनुपम रूप, अलौकिक वेश!
चकाचौंध-सी लगी देखकर, प्रखर ज्योति की वह ज्वाला,
निस्संकोच, खड़ी थी सम्मुख, एक हास्यवदनी बाला!
रत्नाभरण भरे अंगो में, ऐसे सुन्दर लगते थे--
ज्यों प्रफुल्ल बल्ली पर सौ सौ, जुगनूँ जगमग जगते थे!
थी अत्यन्त अतृप्त वासना, दीर्घ दृगों से झलक रही,
कमलों की मकरन्द-मधुरिमा, मानो छवि से छलक रही।
किन्तु दृष्टि थी जिसे खोजती, मानो उसे पा चुकी थी,
भूली-भटकी मृगी अन्त में अपनी ठौर आ चुकी थी॥