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"मुझे दुनिया का फलसफ़ा मालूम नहीं है / मुकेश जैन" के अवतरणों में अंतर
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न-जाने-हुए फलसफ़े को ढोते ढेरों लोग | न-जाने-हुए फलसफ़े को ढोते ढेरों लोग |
20:27, 30 जनवरी 2010 का अवतरण
मुझे दुनियाँ का फलसफ़ा मालूम नहीं है।
बच्चा ख़ुद को नंगा देखकर ख़ुश होता है।
न-जाने-हुए फलसफ़े को ढोते ढेरों लोग
रोज़ मरते हैं। लोगों की आँखों में झाँको
तो न-जाना-सा फलसफ़ा एक खौफ़ की
मांनिंद भीतर उतर जाता है। जहाँ बच्चों
की आँखों की नग्नता अँकुराती है।
अख़बार पढ़ते हुए अचानक कविता
पढ़ना पढ़े तो एक बैचेनी-सी होती है।
यहीं से दुनिया के फलसफ़े का सिरा
शुरु होता है।
कविता प्रिया की तरह नहीं आती है।
तग़ादा करने आए बनिए की तरह
एहसास कराती है।
रचनाकाल: 20/जनवरी/1996