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"प्रेम रोग / तारा सिंह" के अवतरणों में अंतर
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12:48, 4 जनवरी 2007 का अवतरण
रचनाकार: तारा सिंह
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- कोहरे में लिपटा इस धरा गर्त के अतल से
- निकलकर , असंख्य दुख , विपदाएं , शत -शत
- भुज फैलाए , अग्नि – ज्वाल की लपटों सी
- अँगराई लेती रहती हैं, इसलिए जीवन इस
- कंदर्प में खिला, मनुष्यत्व का यह पद्म
- खिलते ही मुरझा जाता है, फिर भी मनुज
- मुरझाने से पहले, अपनी आकांक्षा के तरु को
- हृदय सरोवर के शीतल जल से सीचना चाहता है
- नियति के इस निर्मम उपहास से मर्माहत हो उठी
- मनुज की मूक चेतना में गहरे व्रण पड़ जाते हैं
- तब वह आकांक्षा के प्रीति पाश से बाँधकर काँपती
- छाया के पुलकित दूर्वांचल में, कुछ देर ही सही
- बैठकर समीर - सा सौरभ पीना चाहता है जिससे
- जीवन संघर्षों की प्रतिध्वनियाँ उठकर संगीत में
- बदल सके और सिहर रहे पत्रों के थर-थर सुख से
- विभोर होकर , गंध पवन में भीनी- भीनी साँसें ले
- रही, अर्द्धविकसित कलियों का मुख चूम सके
- जिससे हृदय की शिरा – शिरा में रोर रहे
- प्रीति सलिल की शीतल धारा में स्नान कर
- अंतरमन विनाश के महाध्वंश में नवल सृजन कर सके
- मगर इस दुनिया में यह प्रेम बड़ा कठिन रोग होता है
- जिसे लगता, रातों की नींद चली जाती है, दिल
- का चैन चला जाता है, दवा और दुआ कुछ काम नहीं
- आता, आषाढ की घनाली छाया, मदहोश किए रहती है
- एक सरोज मुख के बिना, जीवन अधूरा लगता है
- आँखों को दामिनी चकित नहीं करती, कामिनी करती है
- अधरों से नव प्रवाल की मदिरा निकलकर तन के
- रोओं में आकर दीपक सा जलता रहता है, जिसकी
- सभी महिमा फैली हुई है भुवन मे कामद - सा
- जिसका जयगान सिंधु, नद, हिमवत् सभी करते हैं
- प्रेमी मन उसे भी भूल जाता है, कब दिन उगा
- कब शाम हुई, कब दिन ढला, कुछ ग्यान नहीं रहता
- मगर चाँदनी मलिन और सूरज तापविहीन दीखता है
- क्या साधु क्या फकीर, क्या राजा क्या रंक
- क्या देवता क्या दानव , सभी यही सोचते हैं
- ऐसा मनोमुग्धकारी पुष्प इस जहाँ में
- दूसरा और कोई नहीं हो सकता, जिसमें
- रूप, रंग,गंध के संग-संग मदिर भाव भी रहता है
- जिसको पाकर योगी योग तक भूल जाता है, और
- ग्यानी ग्यान भूल जाता है
- दिवस रुदन में, रात आह में कट जाती है
- इस दुनिया में प्रेम रोग सबसे कठिन रोग होता है