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"देखते जाओ मगर कुछ भी / क़तील" के अवतरणों में अंतर
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05:03, 16 फ़रवरी 2010 का अवतरण
देखते जाओ मगर कुछ भी जुबां से न कहो | 
मसलिहत का ये तकाज़ा है की खामोश रहो ||
लोग देखंगे तो अफसाना बना डालेंगे
यूँ मेरे दिल में चले आओ के आहट भी न हो
गुनगुनाती हुई रफ्तार बड़ी नेमत है
तुम चट्टानों से भी फूटो तो नदी बन के बहो
ग़म कोई भी हो जवानी में मज़ा देता है
ग़म-ए-जहाँ जो नहीं है ग़म-ए-दौरान ही सहो
हो चुके प्यार में रुसवा सर-ए-बाज़ार क़तील
अब कोई हम को नहीं फ़िक्र जो होना है सो हो
	
	