भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बेड़ियों के विरूद्ध / विश्वनाथप्रसाद तिवारी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विश्वनाथप्रसाद तिवारी |संग्रह=साथ चलते हुए / वि…)
 
(कोई अंतर नहीं)

15:49, 4 मार्च 2010 के समय का अवतरण

संदर्भ वियतनाम

वे हमेशा बेरहम होते हैं
दूसरों का आकाश अपनी मुट्ठियों में बंद करने वाले
निचोड़ लेते हैं होठों की मुस्कान
घनहर खेतों में सुरंगें बिछा देते हैं।

कोई भी नाम दे लो
उनकी व्यवस्था में कोई संवेदना नहीं होती ।

तुम भाग्यवान हो जो महसूस कर सकते हो
(गो उनकी व्यवस्था सबसे पहले संवेदना को भोथर करती है)
फिर धीरे-धीरे जातीय यादों को धुँधली कर देती है।
तुम महसूस कर सकते हो
कि दिन तुम्हारी चमड़ी में
इतना कभी नहीं चुभा था
तुम महसूस कर सकते हो
कि रातें इतनी लम्बी कभी नहीं हुई थीं
तुम देख सकते हो इस अँधेरे मौसम में
उफ़नतीनदियोंको रेत होते
ख़ामोश पहाड़ों-जंगलों को काँपते
और इसके पहले कि बंद आकाश
धुएँ में घुटने लगे
और इस बदनसीब बस्ती में शोलों की बारिश शुरू हो
तुम चाहो तो नली सीधी कर सकते हो
चाहो तो कविता में साँस ले सकते हो
यह वह समय है
जब तुम इन्तज़ार नहीं कर सकते।

वे एक बर्बर कानून बनाते हैं
स्कूल की जगह खोलते चले जाते हैं
देशी रक्त में विदेशी शराब मिलाकर
हड्डियों से चूसते रहते हैं धरती की सम्पदाएँ
और एक निश्चित समय के बाद
तुम्हें ऐसी सुनसान पगडंडी पर छोड़ देते हैं
जहाँ कोई विकल्प नहीं होता
ऐसे मौसम में
जब कि मरी हुई आत्माएँ अपना हक़ माँग रही हों
और बेड़ियाँ बढ़ी आ रही हों जकड़ लेने के लिए
तुम न आत्म-समर्पण कर सकते हो
न आत्महत्या ।

और तुम क्या कर सकते हो सिवा इसके
कि झाड़ियों-जंगलों में छिपते रेंगते रहो
पीठ और हथेलियों पर लिए हुए अपनी ज़िन्दगी?

बंदूकों में ढूँढ़ते हैं किसान अपनी अस्मिता
स्त्रियाँ बच्चों की आँखों में टटोलती हैं अपना भविष्य
जवानी के दिन उन्हें याद नहीं आते
बच्चे भूल चुके हैं ककहरे ।

हवाबाज़ों से कहो उनका गणित ग़लत साबित होगा
इस वक़्त कोई भी ग्रह अपनी धुरी पर
सही सलामत नहीं रह सकता
आदमी अपनी धुरी पर दृढ़ होगया है
और यह वक़्त है
तुम वापस कर दो हमारा आकाश
हमारी मिट्टी
हमारी शिनाख़्त।