भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शुरूआत / विश्वनाथप्रसाद तिवारी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विश्वनाथप्रसाद तिवारी |संग्रह=साथ चलते हुए / वि…)
 
(कोई अंतर नहीं)

16:46, 4 मार्च 2010 के समय का अवतरण

शुरू करो क ख ग से ।
भाषा जो बोलते हैं उनकी है।

बेतों के जंगल में
कुछ भूखे-नंगे लोग
दूसरों के लिए कुर्सियाँ बीन रहे हैं।

तु क्या होना चाहते थे
और वह क्या है
जिसने तुम्हें वह नहीं होने दिया?

स्त्री बच्चा
रोटी बिस्तर
या और कुछ?

तुम यहाँ जैसे आए थे
क्या वैसे ही रह गए हो?

शुरू करो क ख ग से।
भाषा अर्थहीन हो गई है
लौटो और देखो।
कुछ लोग अब भी खड़े हैं।

लाख ढकेलने के बावजूद
ढहे नहीं हैं।
बता दो पुलिस को
अँधेरे को,सन्नाटे को
अट्टहास करती, मुँह बिराती
मशीनों को, चीज़ों को
वे अभी हैं,
हैं और ढहे नहीं हैं।