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"जुज़ क़ैस और कोई न आया / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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आशुफ़्तगी<ref>परेशानी</ref> ने नक़्श-सवैदा<ref>दिल के दाग़ का चिन्ह</ref> किया दुरुस्त
 
आशुफ़्तगी<ref>परेशानी</ref> ने नक़्श-सवैदा<ref>दिल के दाग़ का चिन्ह</ref> किया दुरुस्त
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था ख़्वाब में ख़याल को तुझसे मुआ़मला
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था ख़्वाब में ख़याल को तुझसे मुआमला
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मैं वर्ना हर लिबास में नंगे-वजूद<ref>अस्तित्व का कलंक</ref> था  
 
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08:05, 6 मार्च 2010 का अवतरण

जुज़<ref>सिवाय</ref> क़ैस<ref>लैला
का प्रेमी
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सहरा मगर बतंगि-ए-चश्मे-हुसूद<ref>ईर्ष्यालुओं की आँख की तरह तंग</ref> था

आशुफ़्तगी<ref>परेशानी</ref> ने नक़्श-सवैदा<ref>दिल के दाग़ का चिन्ह</ref> किया दुरुस्त
ज़ाहिर हुआ कि दाग़ का सरमाया दूद<ref>धुआँ</ref> था

था ख़्वाब में ख़याल को तुझसे मुआमला
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लेता हूँ मकतबे-ग़मे-दिल<ref>दिल के ग़म की पाठशाला</ref> में सबक़ हनोज़<ref>अभी</ref>
लेकिन यही कि 'रफ़्त' 'गया', और 'बूद' था

ढाँपा कफ़न ने दाग़े-अ़यूबे-बरहनगी<ref>नग्नता का दोष</ref>
मैं वर्ना हर लिबास में नंगे-वजूद<ref>अस्तित्व का कलंक</ref> था

तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन<ref>फ़रहाद,
शीरीं का प्रेमी</ref> 'असद'
सरगश्ता-ए<ref>बँधा हुआ</ref> ख़ुमारे-रुसूम-ओ-क़यूद<ref>रीति-रिवाज</ref> था

शब्दार्थ
<references/>