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22:10, 2 अप्रैल 2010 का अवतरण
बारिश में केवल पानी नहीं
प्रेम भी बरसता है आकाश से
प्रेमोत्सव के लिए धरती
पहन लेती है हरी चूनर
पक्षी चटक रंग के कपडे
खुशी से फूल उठते है
गर्व से गौरवान्वित बीज
अनजाने ही
प्रत्येक धमनी में
बह उठता है
हारमोनों का ज्वार
डूबता-उतराता है मन
प्रेम के लिए व्याकुल प्राण
प्रेम ही मांगते है
जींवन उसकी विराट जिजीविषा में
मानता नहीं कोई बंधन
फैलता ही जाता है
ब्रह्म को विस्तीर्ण होने की
जीतनी गहरी अभिलाषा होती है
उस साल उतनी तेज़ बारिश होती है