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"शीर्षक / गिरिराज किराडू" के अवतरणों में अंतर
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टांग दिया हो मेरी कथा के द्वार पर शीर्षक की तरह | टांग दिया हो मेरी कथा के द्वार पर शीर्षक की तरह | ||
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वे आते हैं मेरे पास अपने सुख को कपड़ों के सबसे अन्दरूनी अस्तर मे | वे आते हैं मेरे पास अपने सुख को कपड़ों के सबसे अन्दरूनी अस्तर मे | ||
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अछूता रखकर | अछूता रखकर | ||
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मेरे दुख,भूख या बिस्तर कम्बल के बारे में पूछते हुए | मेरे दुख,भूख या बिस्तर कम्बल के बारे में पूछते हुए | ||
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लौटते हुए वे नामपट्टिका को हिलाते हैं | लौटते हुए वे नामपट्टिका को हिलाते हैं | ||
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जैसे मन्दिर से निकलते हुए घण्टी को | जैसे मन्दिर से निकलते हुए घण्टी को | ||
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मैं उनके चेहरे नहीं पहचानता | मैं उनके चेहरे नहीं पहचानता | ||
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(हालांकि जानता हूं चेहरे से कोई पहचाना नहीं जा सकता) | (हालांकि जानता हूं चेहरे से कोई पहचाना नहीं जा सकता) | ||
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मेरी आंखें सिर्फ पीछे देखती हैं | मेरी आंखें सिर्फ पीछे देखती हैं | ||
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वे इस तरह अन्धी हैं कि भविष्य काजल की एक गोल बिंदी है | वे इस तरह अन्धी हैं कि भविष्य काजल की एक गोल बिंदी है | ||
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सामने की दीवार में धंसे पत्थर फोड़ निकले किसी देव के सिर पर लगी | सामने की दीवार में धंसे पत्थर फोड़ निकले किसी देव के सिर पर लगी | ||
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जिसने ढक लिया है उनके चेहरे को जैसे शामियाना ढक लेता है उत्सव को | जिसने ढक लिया है उनके चेहरे को जैसे शामियाना ढक लेता है उत्सव को | ||
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और आसमान को भी | और आसमान को भी | ||
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01:44, 5 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
जैसे नाम किसी शरणार्थी का
टांग दिया हो मेरी कथा के द्वार पर शीर्षक की तरह
वे आते हैं मेरे पास अपने सुख को कपड़ों के सबसे अन्दरूनी अस्तर मे
अछूता रखकर
मेरे दुख,भूख या बिस्तर कम्बल के बारे में पूछते हुए
लौटते हुए वे नामपट्टिका को हिलाते हैं
जैसे मन्दिर से निकलते हुए घण्टी को
मैं उनके चेहरे नहीं पहचानता
(हालांकि जानता हूं चेहरे से कोई पहचाना नहीं जा सकता)
मेरी आंखें सिर्फ पीछे देखती हैं
वे इस तरह अन्धी हैं कि भविष्य काजल की एक गोल बिंदी है
सामने की दीवार में धंसे पत्थर फोड़ निकले किसी देव के सिर पर लगी
जिसने ढक लिया है उनके चेहरे को जैसे शामियाना ढक लेता है उत्सव को
और आसमान को भी