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02:46, 5 अप्रैल 2010 के समय का अवतरण
ऊँची कूदों तेज़ जिरहों दौड़ती गाडिय़ों के बीच मैं घुस न सका गोलियों और गालियों के बीच ना पहुँच पाया
बल को प्रदर्शन चाहिए होता है हमेशा भुजाओं की मछलियों ने बताया मुझको
मेरे युग में सुख पोर-भर की दूरी पर थे पोर-भर भी डूबे जो उनमें वो धन्य हुए
पंद्रह साल पहले मैं चुपचाप करता था प्रेम आज चुपचाप करने पर प्रेम छूटता जान पड़ता
अब मैं बोलता बहुत बहुत बोलता फिर भी उनकी शिकायत है ये के
जैसे-जैसे दिन चढ़ता है मुझ पर चुप्पी चढ़ती जाती है
इस तरह बहुत बोलने को बहुत चुप रहने का समार्थी ही जाना उनने
हर वक़्त जानना चाहा कि कौन हूं मैं जो कभी उनके तंबुओं की तरफ़ नहीं आया
जब कहा उन्होंने सत्य के बहुत क़रीब मत जाओ सूर्य के भी रहो उन जीवों की तरह जो जाने किस ब्रह्मांड में रहते आए
भूख भय ख़ुशी प्रेम आवश्यकता नहीं शौक़ हों जिनके लिए
मैं ख़ौफ़ज़दा उनसे भागता छिपता फिरता रहा
यूँ अपना क़बीला बचाया मैंने उनसे नूह की कश्ती में भरोसे की कहानी पढ़
सच कहूं क्या सच में बचा भी पाया कि यहां कोई आबादी नहीं दिखती मेरे पास
फिर भी जो बची वह निर्जनता है और जन की स्मृति भी जन को जनने में मददगार होगी ही
बस मैं डरता हूँ कि मेरी स्मृति कब तक रहेगी मेरी ही
यह जो भय का छाता है यही मुझे बचाता है
और इसे पहचाने बिना मैं तुम्हें धन्यवाद करता रहा भगवन!