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"प्रकृति के दफ़्तर में / शरद कोकास" के अवतरणों में अंतर

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(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद कोकास |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> कल शाम गुस्से में ल…)
 
 
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काम के घंटों में परिवर्तन ज़रूरी है  
 
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यह नई व्यवस्था की माँग है   
 
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बरखा , बादल, धूप , ओस , चाँदनी  
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बरखा, बादल, धूप, ओस, चाँदनी  
 
सब किसी न किसी के अधीनस्थ  
 
सब किसी न किसी के अधीनस्थ  
 
बंधी-बंधाई पालियों में  
 
बंधी-बंधाई पालियों में  

02:36, 13 मई 2010 के समय का अवतरण

कल शाम गुस्से में लाल था सूरज
प्रकृति के दफ़्तर में हो रहा है कार्य-विभाजन
जायज़ हैं उसके गुस्से के कारण
अब उसे देर तक रुकना जो पड़ेगा

नहीं टाला जा सकता ऊपर से आया आदेश
काम के घंटों में परिवर्तन ज़रूरी है
यह नई व्यवस्था की माँग है
बरखा, बादल, धूप, ओस, चाँदनी
सब किसी न किसी के अधीनस्थ
बंधी-बंधाई पालियों में
काम करने के आदी
कोई भी अप्रभावित नहीं हैं

हवाओं की जेबें गर्म हो चली हैं
धूप का मिज़ाज़ कुछ तेज़
चांदनी कोशिश में है
दिमाग की ठंडक यथावत रखने की
बादल, बारिश, कोहरा छुट्टी पर हैं इन दिनों

इधर शाम देर से आने लगी है ड्यूटी पर
सुबह जल्दी आने की तैयारी में लगी है
दोपहर को नींद आने लगी है दोपहर में
सबके कार्य तय करने वाला मौसम
ख़ुद परेशान है तबादलों के इस मौसम में

खुश है तो बस रात
अब उसे अकेले नहीं रुकना पड़ेगा
वहशी निगाहों का सामना करते हुए
ओवरटाइम के बहाने देर रात तक

भोर, दुपहरी, साँझ, रात
सब के सब नये समीकरण की तलाश में
जैसे पुराने साहब की जगह
आ रहा हो कोई नया साहब ।