भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"एक बहती नदी / अशोक तिवारी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक तिवारी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> घर के कोने कोने क…)
 
पंक्ति 113: पंक्ति 113:
 
मैं तो बिलकुल नहीं
 
मैं तो बिलकुल नहीं
 
हरगिज़ नहीं........!!
 
हरगिज़ नहीं........!!
-----------------
 
12/5/2010
 

20:45, 16 मई 2010 का अवतरण

घर के कोने कोने के साथ मेरा रिश्ता
उतना ही गहरा रहा है माँ
जितना एक बेटी का होना चाहिए
हवा में पानी और
पानी में हवा की तरह

बचपन में खेले गए छुप्पन-छिपाई में
दीवारों की ओट
बहुत बड़ा सहारा थी मेरे लिए
वही दीवारें
नागफनी की बाड़ की तरह
छाने लगती हैं मेरे चारों ओर मेरी माँ
जब तुम्हारे बदन पर चिपकी हज़ारों आँखें
मुझे तोलती हुई
मेरे अंदर की औरत को
देखने की कोशिश करती हैं
पुरातन चश्मे से
और मुझे अपने ही घर के कोने
मुंह चिड़ाते हैं
कराने लगते हैं अजनबीपन का अहसास

औरत की रचनात्मकता
एक सवाल की तरह घेरती है मुझे

हवा में फैले गहरे काले धुएं की घुटन
मौजूद रही है तुम्हारी धडकनों में
जिसने बना दिया है तुम्हें
कहीं ज़्यादा गहरा और शांत
समाज की जकड़बंदी
बहती रही है तुम्हारी सांसों में
सालों-साल

सामाजिक बंधनों को तो
मैं भी मानती हूँ माँ
मां-बेटी के रिश्ते की महक
हमसे अधिक और कौन सूंघ सकता है
हम दोनों के दिल भले ही हों अलग
धड़कते रहे हैं मगर एक साथ
हमारी सांसों की गरमाहट
रही है हमेशा एक सी
एक ही आवृत्ति के साथ
स्पंदित होते रहे हैं हमारे सुर
फिर माँ
तुम्हारा अकेले में मुझे देखना
क्यों कर देता है मुझे विचलित
क्यों मेरी छातियों की ओर
देखने लगती हैं तुम्हारी निगाहें
और मैं डर जाती हूँ
तुम्हारी पहाड़ सी आकांक्षाओं के सामने
तुम्हारे अंदर घुमड़ते सवालों को
जब में पढ़ती हूँ
मुझे लगता है
मेरा अधूरापन
छा रहा है तुम्हारे अंदर
और मैं होती जा रही हूँ
तुम्हारे सत्व से सराबोर


उम्र के इस पड़ाव में
जब मेरी उम्र
तुम्हारे हिसाब से
ढोती है बच्चों का बोझ
मेरे लिए साथी ढूढ़ने की तुम्हारी मुहिम
तुम्हें तोड़ रही है कहीं गहरे में
मगर मैं क्या करूं माँ
नए-नए रिश्तों की बुनावट
की कल्पना से ही सिहर जाती हूँ मैं
जहां मैं अपने होने न होने में
नहीं कर पाती हूँ फ़र्क

मुझे मालूम है
मैं 'अपने' ही घर में
हूँ चिंता का सबब
मेरे छोटे नहीं,
बड़े नहीं,
मैं हूँ .......
जो तारीख़ बदलने की बात करती हूँ
मगर बदल नहीं पाती
अपने घर के ही कुछ उसूलों को

ज़िंदगी का ठहराव ऐसे में
मेरे मन में करता है बेचैनी पैदा
जब में देखती हूँ
तुम्हारे अंदर सुलगते कोयलों को
धधक रहे हैं जो तुम्हारे कलेजे में
सुसुप्त ज्वालामुखी की तरह
तुम्हें खा रही है कोई अनजानी चिंता
धीरे-धीरे
और तुम बहाना लेकर
छेड़ देती हो ऐसा ही कोई राग
घोल देता है जो मौसम में कडुवाहट

नदी बनकर
और धाराओं के साथ बहना और जीना
मैंने तुमसे ही सीखा है
नदी होकर
एक नदी से अपनी स्वच्छंदता
क्यों छीनना चाहती हो माँ

भीड़ में खोना नहीं चाहती मैं
क्योंकि भीड़ में खोना
डुबो देना है अपने आपको
ठहरे हुए पानी में
एक नदी की आत्महत्या
कर पाओगी तुम बरदाश्त?
मैं तो बिलकुल नहीं
हरगिज़ नहीं........!!