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"दुःख की कविता / प्रदीप जिलवाने" के अवतरणों में अंतर

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20:54, 17 मई 2010 के समय का अवतरण

दुख, हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा है।
देह के ज़रूरी अंग-सा।

दुःख नमक की तरह घुल जाता है आसानी से
और हलक में छोड़ जाता है अपना खारा अनुभव
हर घूँट के बाद एक नया अनुभव।

हम दुःख को दुःख हमें
जानते हैं, पहचानते हैं अच्छी तरह
हम दुःख को और दुःख हमें
घर के सामने लगे घूरे-से घूरते रहते हैं अक्‍सर।

दुःख की चिड़िया छत पर बैठी
इसी ताक में रहती है कि कब थोड़ा-सा अवसर मिले
और चार तिनकों का एक घोंसला बना लूँ इस शानदार घर में
किसी झूमर के ऊपर, किसी पुरानी तस्‍वीर के पीछे।

मेरे घर का एक ही रास्ता है
मगर दुःख न जाने किन-किन रास्तों से
चला आता है दरवाज़े तक।

दुःख जंगल के सीने पर भेड़ियों का शोकगीत है
गहराते हुए अँधेरे के साथ बढ़ता जाता
अकेलेपन का वो कानफोड़ू शोर है,
जिसे सुनना और सहना
हमारी मज़बूरी भी है और नियति भी।