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"आती हुई हवाएँ / अलका सर्वत मिश्रा" के अवतरणों में अंतर

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ज़िन्दगी जीने की
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आती हुई हवाएँ
कला सिखाना
+
मायूस होने लगी थीं
भूल गए मुझे
+
ख़ुशबू की तलाश में !
मेरे बुजुर्ग।
+
दुर्गन्ध का साम्राज्य था  
मैंने देखा
+
हर तरफ फैला हुआ
लोगों ने बिछाए फूल
+
आदमी तो आदमी
मेरी राहों में,
+
दिमाग तक सड़ा हुआ!!
प्रफुल्लित थी मैं !
+
 
पहला क़दम रखते ही
+
भटकती ही रह गई
फूलों के नीचे
+
अंधेरी राहों पर  
दहकते शोले मिले ,
+
रोशनी की तलाश में !!
क़दम वापस खींचना
+
 
मेरे स्वाभिमान को गँवारा नहीं था  
+
ज़िंदा आदमी की भी
इस एक क़दम ने
+
बेनूर सी आँखें !
खींच दी तस्वीर यथार्थ की
+
 
दे दी ऎसी शक्ति
+
हवाओं को शंका हुई
मेरी आँखों में
+
अपने ही क़दम पर
जो अब देख लेती हैं
+
कहीं ग़लत तो नहीं आई वे
परदे के पीछे का सच
+
ये धरती ही है !!!
हर क़दम पर  
+
लगता है
+
आ गया है चक्रव्यूह का साँतवा द्वार
+
जिसे नहीं सिखाया तोड़ना
+
मेरे बुजुर्गों ने मुझे
+
और हार जाऊँगी अब !
+
किन्तु
+
वाह रे स्वाभिमान
+
जो हिम्मत नहीं हारता
+
जो नहीं स्वीकारता
+
कि मैं चक्रव्यूह में फँसी
+
अभिमन्यु हूँ।
+
जिस पर वार करते हुए
+
सातों  महारथी
+
भूल जाएँगे युद्ध का धर्म
+
एक बार पुनः
+
ललकारने लगता है  
+
मेरे अन्दर का कृष्ण ,मुझे
+
कि उठो ,
+
युद्ध करो !और जीत लो !!
+
ज़िन्दगी का महाभारत  .
+
पुनः आँखों में ज्वाला भरे
+
आगे बढ़ते क़दमों के साथ
+
सोचती हूँ मैं
+
कि ज़िन्दगी जीने की
+
कला सिखाना
+
भूल गए मुझे....
+
 
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12:20, 19 मई 2010 के समय का अवतरण

आती हुई हवाएँ
मायूस होने लगी थीं
ख़ुशबू की तलाश में !
दुर्गन्ध का साम्राज्य था
हर तरफ फैला हुआ
आदमी तो आदमी
दिमाग तक सड़ा हुआ!!

भटकती ही रह गई
अंधेरी राहों पर
रोशनी की तलाश में !!

ज़िंदा आदमी की भी
बेनूर सी आँखें !

हवाओं को शंका हुई
अपने ही क़दम पर
कहीं ग़लत तो नहीं आई वे
ये धरती ही है न !!!