भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रात / निर्मला गर्ग" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निर्मला गर्ग |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> जिस रात की कोई …)
 
(कोई अंतर नहीं)

23:04, 27 मई 2010 के समय का अवतरण

 
जिस रात की कोई सुबह नहीं
वह रात है
गुजरात

यह रात फैलाती ही जा रही है
घनी होती जा रहीं उसकी दुरभिसंधियाँ
सच होते जा रहे बारंबार दुहराए झूठ

यह छीन रही हमसे हमारी आवाज़
बदल रही हमारा सारा इतिहास
ज़हर घोलती हवाओं में
अट्टहास करती यह रात
विदेशी पूँजी से बहनापा रखती
जनता की जेबों में कर रही छेद
इस रात के बाज़ू सहस्त्र हैं
इसके हैं चेहरे अनेक ।

                   
रचनाकाल : 2003