"ऑफ़िस-तंत्र-2 / कुमार अनुपम" के अवतरणों में अंतर
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03:14, 2 जून 2010 के समय का अवतरण
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सुनो, ऐसा करते हैं कि एक शीशी ज़हर लाते हैं
तुम पराठे बनाना लज़ीज़
इस सलीके से मिला देना उसमें कि गन्ध न आये तनिक
मैं जाऊँगा ऑफ़िस
और मालिक के आगे परोस दूँगा पूरी आत्मीयता में डूब
फिर आएगा मज़ा
दूँगा भरे ऑफ़िस में मुझे अपमानित करने की सज़ा
बट डार्लिंग,
उसकी हत्या के जुर्म में तो मैं फँस ही जाऊँगा
वैसे खाएगा ही क्यों बल्कि वह तो
डालेगा तक नहीं इन पर अपनी स्थायी घुन्नी निगाह
वह तो यूँ ही चला आता ऑफ़िस
और मँगवाता है शाही पनीर
ऑफ़िस एकाउंट से रोज़बरोज़
बाई द वे,
पिछली बार
हमने कब खाया था शाही पनीर?
याद नहीं
तो कोई बात नहीं
लेकिन खैर तो यह
कि एक जून का अनाज
बरबाद होते-होते बचा कि फार्मूला बेहद लचर था
वैसे आटा भी दस से बीस पहुँच गया है
ऐसा करना,
चार की जगह मुझे दो पराठे देना कल से
क्या है कि सीट पर बैठे-बैठे सुबह से शाम
गैस की प्रॉब्लम होने लगी है
और बढ़ती उम्र में
ज़रा सँभल के खाओ तो ही भला— वह कहता है
और ठंडा पानी पीता है एक साँस
हालाँकि उसे
देर तक खाँसी के धसके से जूझना पड़ता है।